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________________ ॐ व्युत्सर्गतप : देहातीत भाव का सोपान ॐ ४२१ ॐ अभ्यास से बौद्धिक उछलकूद शान्त होकर प्रज्ञा की स्थिरता बढ़ जाती है। जब व्युत्सर्गतप के द्वारा प्रज्ञा जाग्रत हो जाती है, तब सुख-दुःख, सुविधा-असुविधा, लाभ-अलाभ (प्राप्ति-अप्राप्ति), निन्दा-प्रशंसा, जीवन-मरण, अनुकूलता-प्रतिकूलता, सम्मान-अपमान आदि द्वन्द्वों में समभाव में स्थिर रहने की क्षमता विकसित हो जाती है। वह कैसी भी परिस्थिति हो, कैसा भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव हो, उसमें प्रतिबद्ध न होकर आत्म-दृष्टि से, आत्म-स्वभाव में स्थित रहता है, वह किसी भी इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग तथैव इष्ट-संयोग और अनिष्ट-वियोग की परिस्थिति में समत्व में स्थित रहता है। ऐसी स्थितप्रज्ञता व्युत्सर्गतप के साधक में आ जाती है। वह द्वन्द्वातीत एवं विमत्सर हो जाता है। व्युत्सर्ग सिद्ध हो जाने पर व्यक्ति में ज्ञाता-द्रष्टाभाव भी जाग जाता है। व्यक्ति अपने स्वरूप में स्वभाव में स्थिर हो पाता है। आत्मा का शुद्ध स्वरूप, जिसे अब तक वह सुन-पढ़कर जान या मान रहा था, अब प्रकट हो जाता है। व्युत्सर्गतप का साधक तब अध्यात्म की, अपने स्वरूप की तथा अपने वास्तविक अस्तित्व और स्व-भाव की उपलब्धि कर सकता है। - स्पष्ट है, व्युत्सर्गतप सिद्ध हो जाने पर साधक की पुरानी आदतों में, संकीर्ण दृष्टिकोण में, भौतिक रुचि में, बुरे स्व-भावों में परिवर्तन आ जाता है। वह प्रत्येक पदार्थ का वस्तुस्वरूप की दृष्टि से विश्लेषण कर सकता है। व्युत्सर्ग की प्रक्रिया से स्वभाव को बदलने की तथा व्याधि और आदि की स्वस्थ-चिकित्सा करने की क्षमता आ जाती है। ... सही माने में व्युत्सर्ग सिद्ध हो जाने पर तन, मन, वचन, बुद्धि आदि शान्त और निश्चल हो जाते हैं। जब ये शान्त हो जाते हैं, तब प्राण-शक्ति की ऊर्जा तथा मन की शक्ति बढ़ जाने से आत्मा और परमात्म-तत्त्व को उपलब्ध करने में कोई रुकावट नहीं रहती और ऐसी स्थिति में दशविध प्राणबल' की तथा मन, बुद्धि, चित्त, हृदय आदि अन्तःकरण की धारा शुद्ध आत्मा की ओर अथवा वीतरागता की ओर प्रवाहित होती है। - व्युत्सर्ग-तपोधनी व्यक्ति में सहिष्णुता, तितिक्षा, सहन करने की शक्ति बढ़ जाती है। _ व्युत्सर्गतप की साधना करने वाले को शरीर और शरीर से सम्बद्ध परभावों-विभावों एवं आत्मा की भिन्नता का विवेक या साक्षात्कार हो जाता है, वह स्व-पर का, स्वभाव और विभाव के भेद को स्पष्टतः हृदयंगम कर लेता है। १. (क) पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वास-निःश्वासमथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा। -योगशास्त्र (ख) पच्चीस बोल के थोकड़े में 'छठे बोले प्राण दस' कहते हैं, वे ये ही दस प्राण हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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