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________________ ४२० कर्मविज्ञान : भाग ७ को तैयार रहना पड़ता है। 'तत्त्वार्थ राजवार्तिक' में व्युत्सर्ग का प्रयोजन बताते हुए कहा गया है-“निःसंगता = अनासक्ति, निर्भयता और जीवन आशा-तृष्णा आदि के त्याग के लिए = कर्मनिर्जरा के लिए व्युत्सर्ग किया जाता है ।" ,१ व्युत्सर्ग की विविध परिभाषाएँ संक्षेप में, संयम, नियम, धर्म (सत्य-अहिंसादि के लिए, आत्म-साधना के लिए अपने आप को 'अप्पाणं वोसिरामि' - अपने दोषयुक्त आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ अथवा काया के प्रति ममत्व का व्युत्सर्ग करता हूँ? इस प्रकार की समर्पण भावना से उत्सर्ग कर देना - स्व-बलिदान कर देना व्युत्सर्ग है । 'सर्वार्थसिद्धि' में व्युत्सर्गतप तीन लक्षण दिये गए हैं - ( 9 ) अहंकार और ममकार ( मैं और मेरा ) रूप संकल्प का त्याग करना व्युत्सर्ग है । (२) कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग है । (३) व्युत्सर्जन करना अर्थात् त्याग करना व्युत्सर्ग है। 'धवला' के अनुसार-“शरीर और आहारमें मन, वचन की प्रवृत्तियों को हटाकर ध्येय वस्तु में एकाग्रतापूर्वक चित्त का निरोध करना व्युत्सर्ग नामक तप है।" 'अनगार धर्मामृत' के अनुसार - "बन्ध के हेतुभूत बाह्य एवं आभ्यन्तर दोषों का उत्तम प्रकार से त्याग करना व्युत्सर्गतप का निर्वचन है।" 'मूलाचार' में कहा गया है - " बाह्य उपधिरूप क्षेत्रादि का और आभ्यन्तर उपधिरूप क्रोधादि का त्याग करना व्युत्सर्ग है।”३ व्युत्सर्गतप की निष्पत्ति व्युत्सर्गतप की एक और निष्पत्ति है - प्रज्ञा की जागृति । प्रज्ञा और बुद्धि में बहुत अन्तर है। बुद्धिप्रिय और अप्रिय का, अच्छे-बुरे का, अनुकूल-प्रतिकूल का चुनाव करने लगती है, जबकि प्रज्ञा में चुनाव का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। वहाँ आत्मा में समता और सहज श्रद्धा परिनिष्ठित हो जाती है। व्युत्सर्ग के 9. (क) 'जैनधर्म में तप' (स्व. मरुधरकेसरी जी म. ) से भाव ग्रहण, पृ. ५०६ (ख) आवश्यकसूत्र में 'करेमि भंते' आदि में बोले जाने वाला सूत्र (ग) आवश्यकनिर्युक्ति, गा. १५५२ २. निःसंगनिर्ममत्व- जीविताशा- व्युत्दासाद्यर्थो व्युत्सर्गः । - राजवार्तिक ९/२६/१० ३. (क) आत्माऽऽत्मीय संकल्पत्यागो व्युत्सर्गः । कायोत्सर्गादिकरणं व्युत्सर्गः । व्युत्सर्जनं व्युत्सर्गः त्यागः । - स. सि. ९/२०/४३९, ९/२२/४४०, ९/२६/४४३ (ख) सरीराहारेसुहु मण - वयण-पवृत्तीओ ओसारियज्झेयम्मि एअग्गेणचित्तणिरोहो विओसग्गो णाम । - धवला ८/३, ४१/८५ (ग) बाह्याभ्यन्तरदोषा ये विविधा बन्धहेतवः । यस्तेषामुत्तमः सर्गः स व्युत्सर्गे निरुच्यते ॥ - अनगार धर्मामृत ७/९४/७२१ (घ) आभ्यन्तरः क्रोधादिः, बाह्यः क्षेत्रादिकं द्रव्यम् (द्वयोस्त्यागः व्युत्सर्गः ) । - मूलाचार ४०६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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