SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 439
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ व्युत्सर्गतप : देहातीत भाव का सोपान * ४१९ ® व्युत्सर्ग कब त्याग है, कब नहीं ? इसी प्रकार कई लोगों को त्याग, प्रत्याख्यान या विसर्जन पच नहीं पाता। वे बाहर से त्याग आदि का दिखावा-प्रदर्शन या नाटक करते हैं, किन्तु अंदर में सभी भोगोपभोग योग्य पदार्थों या सुख-सुविधाओं का आचमन या सेवन या विकल्प-संकल्प करते रहते हैं। इस प्रकार के अस्वच्छन्द, विवशतापूर्ण त्याग के लिए भगवान ने कहा-जो व्यक्ति वस्त्र, गन्ध, अलंकार, स्त्रियाँ और सुखशय्या आदि अस्वाधीन होने से उपयोग नहीं कर पाते, किन्तु मन ही मन कामना सँजोते रहते हैं, वे त्यागी नहीं कह जाते। __जब तक शरीर और शरीर से सम्बद्ध पदार्थों के प्रति आसक्ति, ममता, गद्धि, लालसा, वासना, कामना या उत्सुकता नहीं मिटती, अन्तःकरण से भी विसर्जित नहीं हो जाती, यानी उसके प्रति अहंकार-ममकार का विसर्जन नहीं हो जाता, मन में दबदबा बना रहता है कि इस मनोज्ञ वस्तु, शरीर, कषाय या कर्मबन्ध के कारणों को छोड़ने से मेरा काम कैसे चलेगा? लोग क्या कहेंगे? परिवार, समाज या राष्ट्र के लोग मुझे क्या समझेंगे? मेरी प्रतिष्ठा, प्रशंसा या प्रसिद्धि इस त्याग से हो रही है या नहीं ? ये और इस प्रकार के ताने-बाने त्याग-विसर्जन के पीछे जो बुनता रहता है, उस व्यक्ति का त्याग या विसर्जन सच्चे माने में त्याग या विसर्जन नहीं है। यदि किसी व्यक्ति को अमुक मनोज्ञ एवं उपभोग्य वस्तुएँ आसानी से प्राप्त हो सकती हैं, किन्तु वह उनका स्वेच्छा से, शुद्ध अन्तःकरण से, संकल्पपूर्वक त्याग या व्युत्सर्ग करता है, ‘मणसा वि न पत्थए' की उक्ति को चरितार्थ करता है, तो उसका वह त्याग वास्तविक त्याग कहा गया है, क्योंकि उसने उक्त वस्तुओं से पीठ फेर दी है, स्वप्न में भी वह उन वस्तुओं को नहीं चाहता है। व्युत्सर्ग आभ्यन्तरतप क्यों और कैसे ? . यही कारण है कि व्युत्सर्ग में आन्तरिक त्याग, प्रत्याख्यान, विसर्जन आदि का बाहुल्य होने से इसे आभ्यन्तरतप कहा गया है। . आसक्ति, अहंता, ममता, मूर्छा, लालसा, गृद्धि, वासना, उत्सुकता और आशा आदि जीवन के सबसे बड़े बन्धन हैं। फिर ममत्व आदि धन का हो, साधनों का हो, विषय-भोगोपभोगों का हो, परिवार का हो, शरीर का हो या शरीर से सम्बन्धित किसी भी पदार्थ का हो, व्युत्सर्ग में इन सभी सजीव-निर्जीव पदार्थों, कषायों, कर्मों का संसार आदि के प्रति यहाँ तक कि प्राणों के प्रति भी मोह-ममत्व आदि का त्याग स्वेच्छा से केवल कर्ममुक्ति की दृष्टि से किया जाता है। इसमें अपने स्वत्वमोह, कालमोह तथा संसारमोह का भी त्याग अनिवार्य है। इसमें स्वेच्छा से, बिना किसी स्वार्थ के, आत्म-शुद्धि, आत्म-समर्पण एवं बलिदान की दृष्टि से स्वयं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy