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________________ व्युत्सतप: देहातीत भाव का सोपान व्युत्सर्गतप क्या है, क्या नहीं है ? स्वाध्याय और ध्यान के पश्चात् व्युत्सर्गतप का क्रम है। व्युत्सर्ग का अर्थ हैविशेष प्रकार से तन, मन, बुद्धि और इन्द्रियों से उत्सर्ग करना, विसर्जन करना, त्याग-प्रत्याख्यान करना। व्युत्सर्गतप बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के तपश्चरण का संगम है। इसे आभ्यन्तरतप में इसलिए स्थान दिया गया है कि कुछ लोग विवश होकर, बाध्य होकर, समाज, राज्य परिवार या अन्य किसी के दबाव, भय या किसी स्वार्थ से प्रेरित होकर भी त्याग, दान या प्रत्याख्यान करते हैं, इस बाह्य विसर्जन या त्याग की गणना व्युत्सर्गतप की कोटि में कतई नहीं की जा सकती। कई साधक भी वस्त्र, गन्ध, माल्य, अलंकार, नारी, अमुक शयनासन तथा सुख-सुविधा के या इन्द्रियविषय-सुखभोग के साधनों का आवेश में या अनावेश में, अभावपीड़ित होने से, वृद्धावस्था या लाचारी हालत में या दुःसाध्य व्याधि से पीड़ित होने की अवस्था में त्याग कर देते हैं। यहाँ तक कि कई व्यक्ति आत्महत्या करके शरीर तक का भी त्याग कर देते हैं, किन्तु उस त्याग को या बिना सोचे-समझे, बिना अर्थ और आगार को समझे अथवा देखादेखी या विवश होकर प्रत्याख्यान कर देने का, फिर मन में घुटते रहने का या दूसरों को सुख-सुविधाओं तथा सुखोपभोगों से, धनादि से सम्पन्न देखकर मन ही मन दुःसंकल्प (निदान) कर लेने का, अमुक प्रकार की सुख-सुविधाओं, सुखोपभोग-साधनों की प्राप्ति की आशंसा करते रहने का त्याग तप की कोटि में नहीं आता। उनके स्वभाव में उनके अभ्यास में अथवा उनके जीवन में वह त्याग या प्रत्याख्यान घुलता-मिलता नहीं, वह त्याग-प्रत्याख्यान या विसर्जन उनके जीवन का स्वाभाविक अंग नहीं बन पाता अथवा वे अपने त्याग-प्रत्याख्यान या विसर्जन के बदले प्रशंसा, प्रसिद्धि या पूजा-प्रतिष्ठा पाने के लिए अत्यन्त उत्सुक रहते हैं अथवा अपने त्याग, प्रत्याख्यान, विसर्जन या दान को अहंकार से प्रेरित होकर दूसरों का तिरस्कार करते हैं, दूसरों को नीचा दिखाकर या उनकी निन्दा, बदनामी या पिशुनता करके अपनी ऊँचाई (उच्च क्रिया, उच्च त्याग, उच्च तपस्या आदि) की डींग हाँकते रहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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