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________________ ॐ ४१० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 ध्येय के तीन प्रकार : स्वरूप और विश्लेषण ___ यह निश्चित है कि ध्याता जब तक अपनी भूमिका के अनुरूप किसी एक ध्येय या लक्ष्य में अपने मन, बुद्धि, चित्त और हृदय को नहीं टिकाता है, तब तक ध्यान में स्थिरता, लीनता या एकाग्रता नहीं आ पाती। अनुभवी साधकों ने तीन प्रकार के ध्येयों का निरूपण किया है-(१) परावलम्बन, (२) स्वरूपावलम्बन, (३) निरवलम्बन। निरवलम्बन ध्येय में किसी प्रकार के विकल्प, विचार या पदार्थ का अवलम्बन नहीं लिया जाता। इसमें मन विचारों से शून्य रहता है। परावलम्बन ध्येय में दूसरी-दूसरी वस्तुओं का अवलम्बन लेकर उक्त ध्येय में मन, बुद्धि अथवा दृष्टि को स्थिर किया जाता है। जैसे-भगवान महावीर की ध्यान-साधना का वर्णन करते हुए कहा गया है___ “एक्कपोग्गल-निविठ्ठदिहिए।''-एक पुद्गल पर दृष्टि को स्थिर करके ध्यानमुद्रा में खड़े रहे। इसे एक प्रकार का अन्तस्त्राटक भी कहा जा सकता है। बाह्यत्राटक में वस्तु सामने (काला गोला आदि) रखकर उसमें दृष्टि टिकाई जाती है। श्वास-प्रेक्षण, शरीर-प्रेक्षण आदि भी परावलम्बन ध्येय के प्रकार हैं। इसी तरह शून्य आकाश पर या वृक्ष के पत्तों आदि पर दृष्टि टिकाना भी परावलम्बन ध्येय है। ‘महापुराण' के अनुसार-जगत् के समस्त तत्त्वों या पदार्थों में से जो जिस रूप में अवस्थित हैं, वे सभी पदार्थ या तत्त्व ध्यान के अवलम्बन हो सकते हैं, बशर्ते कि उनके प्रति 'मैं' और 'मेरे' का संकल्प न हो। अर्थात् क्षपक उदासीन या अनीह भाव से जिस-जिस वस्तु को देखता है, वह वस्तु ध्यान का आलम्बन हो सकती है। स्वरूपावलम्बन ध्येय में बाहर की (पर) वस्तु से दृष्टि हटाकर उसे मूंद लेना और कल्पना की आँखों द्वारा अपने स्वरूप का चिन्तन करना होता है। इस ध्येय में पिण्डस्थ, पदस्थ और स्वरूप, ये तीनों तथा आज्ञाविचय आदि चारों धर्मध्यान के प्रकार आ जाते हैं। वैसे 'नियमसार' में पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति, पिछले पृष्ठ का शेष परिणमते येनात्मा भावेन, स तेन तन्मयो भवेत्। अर्हद्ध्यानाविष्टो भावार्हन् स्यात् स्वयं तस्मात्॥१९०॥ -तत्त्वानुशासन १९१, १९० (ख) तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मे मुणेयव्वो। -प्रवचनसार, मूल ८ १. (क) 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ५९८-५९९ (ख) अन्तश्चेतो बहिश्चक्षुरधः स्वाप्य सुखासनम्। समत्वं च शरीरस्य ध्यानमुद्रेति कथ्यते॥ -गोरक्षाशतक ६५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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