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________________ ॐ स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति 8 ४०९ 8 करने वाला किस भूमिका का है। जिसका चित्त स्थिर हो गया हो, वही ध्यान का प्रशस्त अधिकारी है। ध्याता की योग्यता के विषय में 'तत्त्वानुशासन' में बताया गया है-जो जितेन्द्रिय हो, धीर हो, शान्त हो, जिसका चित्त, मन और बुद्धि (आत्मा) स्थिर हो, जो नासिका के अग्र भाग पर दृष्टि को स्थिर करके सुखासन से बैठा हो, वही (योगी) ध्यान करने का अधिकारी है।' ध्यान का चयन : स्व-भूमिका के अनुरूप ध्याता की योग्यता और भूमिका पर विचार करने के पश्चात् ध्यान का विचार करना आवश्यक है कि ध्याता को आर्त-रौद्रध्यान का परित्याग करके धर्म-शुक्लध्यान में से कौन-सा ध्यान करना है? उसे सालम्ब ध्यान करना है या निरालम्ब ध्यान? निरालम्ब ध्यान में ध्याता और ध्येय भिन्न नहीं होते। उसमें शुद्ध चेतना का ही उपयोग (एकमात्र शुद्धोपयोग) ही होता है, उसके सिवाय किसी ध्येय का ध्यान नहीं होता। सालम्ब ध्यान में ध्येय, धाता और ध्यान का भेद होता है। जैन ध्यान-साधकों का अनुभव है कि प्रारम्भ में सालम्बन ध्यान का ही अभ्यास किया जाना चाहिए। उसके द्वारा एकाग्रता घनीभूत और दृढ़ हो जाये, राग-द्वेष-मोह का भाव मन्द हो जाये, तब निरालम्ब ध्यान आत्मा के शुद्ध स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। परन्तु ध्यान-साधक को इस तथ्य को भूलना नहीं है कि सालम्बन ध्यान निरालम्बन ध्यान तक पहुँचने के लिए है। उसी भूमिका में आजीवन टिके रहने के लिए नहीं। ___ इसके अतिरिक्त पहले धर्मध्यान का अभ्यास सुदृढ़ करके फिर शुक्लध्यान की ओर बढ़ना चाहिए। धर्मध्यान में भी आज्ञाविचय आदि चार प्रकारों में से अथवा पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ध्यान में से क्रमशः किसी एक का चयन करके उसमें क्रमशः एकाग्रता बढ़ाते-बढ़ाते फिर रूपातीत ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। 'तत्त्वानुशासन' के अनुसार-आत्मज्ञानी आत्मा को जिस भाव से जिस रूप में ध्याता है, उसके साथ वह उसी रूप में तन्मय हो जाता है। जिस प्रकार उपाधि के पास स्फटिक उक्त उपाधि के रूप में परिणत हो जाता है। 'प्रवचनसार' में कहा है“वीतराग चारित्ररूप धर्म से परिणत आत्मा स्वयं धर्म (में तन्मय) हो जाता है।" अर्हत् को ध्याता हुआ स्वयं भाव अर्हत् हो जाता है। १. (क) यस्य चित्तं स्थिरीभूतं स हि ध्याता प्रशस्यते। -ज्ञानार्णव, पृ. ८४ (ख) जितेन्द्रियस्य धीरस्य प्रशान्तस्य स्थिरात्मनः। सुखासनस्यस्य नासाग्र-न्यस्तनेत्रस्य योगिनः॥ -ध्यानाष्टक २. हेयमाद्यं द्वयं विद्धि दुर्ध्यानं भववर्द्धनम्। उत्तरं द्वितयं ध्यानं उपादेयं तु योगिनाम्॥ -महापुराण २१/२९ ३. (क) येन भावेन यद्रूपं ध्यायत्यात्मानमात्मवित्। तेन तन्मयतां याति सोपाधिः स्फटिको यथा॥१९१॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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