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________________ ॐ ४०८ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 (४) संस्थानविचय-संस्थान कहते हैं-आकार को। तीनों लोकों अथवा नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे जीव रहते हैं ? मेरी आत्मा भी विविध योनियों, गतियों और लोकों में भ्रमण करके आयी है, अब इस भ्रमण से कैसे छुटकारा मिले? इस प्रकार का धर्मध्यान संस्थानविचय है।' धर्मध्यान के चार लक्षण धर्मध्यान के अधिकारी व्यक्ति को निम्नोक्त चार लक्षणों से पहचाना जाता है(१) आज्ञारुचि, (२) निसर्गरुचि, (धर्म, देव, गुरु पर सहज श्रद्धा), (३) सूत्ररुचि (शास्त्रश्रवण-अध्ययन-मनन रुचि), तथा (४) अवगाढ़रुचि (तत्त्वज्ञान की गहराई में अवगाहन करने = उतरने की रुचि)। धर्मध्यान के चार आलम्बन और चार अनुप्रेक्षाएँ धर्मध्यान के चार आलम्बन हैं-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना और धर्मकथा। इन चारों आलम्बनों से ध्याता में एकाग्रता और स्थिरता प्राप्त होती है। धर्मध्यान का इच्छुक साधक चार अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) का निरन्तर अभ्यास करता है-एकत्वानुप्रेक्षा, अनित्यानुप्रेक्षा, अशरणानुप्रेक्षा और संसारानुप्रेक्षा। इन चार अनुप्रेक्षाओं से चित्त में वैराग्य की ऊर्मियाँ तरंगित होती हैं। शरीर और संसार के प्रति आकर्षण कम हो जाता है और आत्मा शान्ति और मनःसमाधि के क्षणों में विचरण करती है। परवर्ती ध्यानयोगी विद्वान् ने विविध विधियाँ प्रचलित की। भगवान महावीर के पश्चात्वर्ती युग में ध्यान के विषय में गहन चिन्तन चला. ध्यानयोगी मुनियों ने कतिपय नये आलम्बनों, स्वरूपों और साधनों का समावेश ध्यान परम्परा में किया है। ध्यान की विधि को भी सरल, सहज और सर्वसुलभ बनाने हेतु कई प्रकार की विधियाँ प्रचलित की हैं। ध्यान करने में मुख्य तीन तथ्यों पर विचार करना आवश्यक ____ ध्यान करने में मुख्यतया तीन बातों का विचार करना आवश्यक है-ध्याता, ध्यान और ध्येय। सर्वप्रथम ध्याता की योग्यता पर विचार करना चाहिए कि ध्यान १. धम्मे झाणे चउब्विहे चउपडोयारे प. तं.-आणाविजए, अवायविजए, विवागविजए, संठाणविजए। २. (क) धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा प. तं.-वायणा, पडिपुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा। -स्थानांग, स्था. ४, उ. १, सू. ३०८ (ख) इन चार लक्षणों के स्वरूप आदि जानने के लिए पढ़ें-स्वाध्याय के भेदों का वर्णन (ग) चार अनुप्रेक्षाओं के विशेष ज्ञान के लिए देखें-कर्ममुक्ति में सहायिका : अनुप्रेच्छाएँ १-३ लेख; स्थानांग ४/१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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