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________________ ॐ स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति ® ४०७ 8 सम्यग्दृष्टि तत्त्वज्ञ साधक को चाहिए कि वे स्वप्न में भी उपर्युक्त ऐहिक फल वाले असमीचीन ध्यानों को कौतुकवश स्वप्न में भी न विचारें, क्योंकि ये सन्मार्ग (मोक्षमार्ग या पुण्यमार्ग) की हानि के लिए बीजरूप हैं। ‘महापुराण' के अनुसार ये दोनों अशुभ ध्यान त्याज्य हैं, संसारवर्द्धक हैं।' धर्मध्यान : स्वरूप और चार प्रकार प्रशस्तध्यान में पहला धर्मध्यान है। जिस आचरण से आत्मा पवित्र हो, विशुद्ध हो, कर्मों से मुक्त हो सके, उसे धर्म कहते हैं, वह संवर-निर्जरारूप या श्रुत-चारित्ररूप या सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप है। शुद्ध धर्म के पवित्र चिन्तन में मन को स्थिर करना, लीन करना धर्मध्यान है। धर्मध्यान के चार प्रकार हैं-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय। (१) आज्ञाविचय का अर्थ है-वीतराग प्रभु की जो आज्ञा या उपदेश, आगमों में निहित है, उस पर दृढ़ आस्था रखते हुए, उनके द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर चलना, निषिद्ध कार्यों का त्याग करना। 'आणाए धम्मो, आणाए तवो, आणाए संजमो, आणाए मामगं धम्म'२ इन सूत्रों पर चिन्तन करना आज्ञाविचय है। (२) अपायविचय-अपाय का अर्थ है-दोष या दुर्गुण। आत्मा मिथ्यात्वादि पाँच कारणों से कर्मबन्ध करके इस संसार में परिभ्रमण कर रहा है। इन दोषों से होने वाले कर्मबन्धरूप अपाय से कैसे-कैसे आत्मा मुक्त या विशुद्ध हो सकती है? इस पर चिन्तन करना अपायविचय है। (३) विपाकविचय-विविध शुभाशुभ कर्मों के विपाक पर-उदय में आने पर प्राप्त होने वाले शुभ-अशुभ फल पर गहराई से चिन्तन करना विपाकविचय है। सुखविपाक और दुःखविपाक के माध्यम से पुण्य-पापकर्मों का फल किस-किस • प्रकार से भोगना पड़ता है ? इस विषय में कथाओं द्वारा प्रकाश डाला गया है। कर्मों के कटु परिणामों पर चिन्तन करके उनसे बचने का संकल्प करना विपाकविचय है। -ज्ञानार्णव ४०/४ -तत्त्वानुशासन २२० १. (क) बहूनि कर्माणि मुनिप्रवीरैर्विद्यानुवादात् प्रकटीकृतानि। असंख्यभेदानि कुतूहलार्थं कुमार्ग-कुध्यान-गतानि सन्ति। (ख) तद्ध्यानं रौद्रमार्तं वा यदैहिक-फलार्थिनाम्। (ग) स्वप्नेऽपि कौतुकेनाऽपि नासद्ध्यानानि योगिभिः। सेव्यानि यान्ति बीजत्वं यतः सन्मार्गहानये॥ (घ) हेयमाद्यं द्वयं विद्धि दुर्ध्यानं भव-वर्द्धनम्। २. आचारांग, श्रु.१ -ज्ञानार्णव ४०/६ -महापुराण २१/२९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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