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________________ ॐ ४०६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ * रौद्रध्यान : स्वरूप, चार कारण एवं चार लक्षण ___ आर्तध्यान प्रायः आत्मघाती होता है, जबकि रौद्रध्यान आत्मघात के साथ-साथ पराघाती होता है। रौद्रध्यान में हिंसा-क्रूरता आदि से युक्त चिन्तन की प्रधानत होती है। इसकी उत्पत्ति के भी चार कारण = चार प्रकार शास्त्रों में बताये हैं(१) हिंसानुबन्धी-किसी को मारने, पीटने, हत्या करने या अंग-भंग करने आदि के सम्बन्ध में गहरा चिन्तन करना, गुप्त योजना बनाना, षड्यंत्र रचना। (२) मृषानुबन्धी-दूसरों को ठगने, धोखा देने, छल प्रपंच करके, झूठफरेब करने, सत्य को असत्य सिद्ध करने आदि का गहन चिन्तन। (३) स्नेनानुबन्धी-चोरी, लूटपाट, डाका, गिरहकटी आदि के नये-नये उपाय खोजना, उनको छिपाने आदि का चिन्तन। (४) संरक्षणानुबन्धी-जो धन, वैभव, अधिकार, पद, प्रतिष्ठा आदि प्राप्त हुए हैं या भोग-विलास आदि के साधन प्राप्त हुए हैं, येन-केन-प्रकारेणं उनके संरक्षण का तथा जो उसमें बाधायें हैं, उनको निष्कंटक बनाने के रास्तों का चिन्तन करना। ये चारों हिंसादि भयंकर. पापों से युक्त ध्यान के उत्पन्न होने के कारण हैं। रौद्रध्यान को पहचानने के लिए भी चार लक्षण बताये गये हैं- . (१) ओसन्नदोसे-हिंसा, झूठ आदि किसी एक पापकर्म में अत्यासक्त होकर सोचना। (२) बहुलदोसे-अनेक प्रकार के पापकारी दुष्टकर्मों में अत्यासक्त रहना। (३) अण्णाणदोसे-हिंसादि प्रधान अधर्म कार्यों में, अन्धविश्वासों औ कुरूढ़ियों में धर्मबुद्धि रखकर अज्ञानवश उनमें आसक्त-प्रसक्त रहना। (४) आमरणांतदोसे-मृत्यु-पर्यन्त मन में करता और रोष, द्वेष, वैर आदि से भरे रहना। अन्तिम समय में भी अपने पापों के प्रति पश्चात्ताप न करना, न ही क्षमा माँगना, किन्तु रौद्रभावों में ही आसक्त बने रहना।' ये अशुभ ध्यान भी सर्वथा त्याज्य हैं __ 'ज्ञानार्णव' में बताया गया है कि ज्ञानी मुनियों ने विद्यानुवाद आदि पूणे से असंख्यभेद वाले अनेक प्रकार के उच्चाटन, स्तम्भन, मोहन, वशीकरण आदि कर्म कौतूहल के लिए प्रगट किये हैं, परन्तु वे सब कुमार्ग तथा कुध्यान के अन्तर्गत हैं। 'तत्त्वानुशासन' के अनुसार-ऐहिक फल चाहने वालों के जो ध्यान होता है, वह या तो आर्तध्यान होता है या फिर रौद्रध्यान। 'ज्ञानार्णव' में चेतावनी दी है कि १. रोद्दे झाणे चउव्विहे प. तं.-हिंसाणुबंधि, मोसाणुबंधि, तेणाणुबंधि, संरक्खणाणुबंधि। रोद्दस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा प. तं.-ओसन्नदोसे, बहुलदोसे, अन्नाणदोसे आमरणंतदोसे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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