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________________ ॐ स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति ॐ ४११ * प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त और आलोचना आदि सब ध्यान ही हैं, अर्थात् ध्यान के योग्य ध्येय हैं। रूपातीत ध्यान निरवलम्बन ध्येय की कोटि में आता है। स्वरूपावलम्बन ध्येय में इनका भी समावेश हो सकता है स्वरूपावलम्बन ध्येय में-जीव (आत्मा) के साथ शेष अजीवादि छह या आठ तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप की दृष्टि से चिन्तनीय पदार्थ भी ध्येय हैं। इसके अतिरिक्त सिद्ध परमात्मा का स्वरूप भी ध्येय है। अर्हत्-स्वरूप भी ध्येय है। अर्हत् का ध्यान भी पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ध्यानों के आलम्बन से हो सकता है। इसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय और साधु भी ध्येय हैं। संक्षिप्त रूप से पंच परमेष्ठी भगवन्तों का ध्यान भी प्रधान ध्येय हो सकता है। निज शुद्धात्मा भी ध्येय है। इन सबके स्वरूप का निज-स्वरूप के साथ सर्वप्रथम ध्याता भेददृष्टि से और फिर अभेददृष्टि से विचार करे, तथैव पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ अवलम्बन के माध्यम से देखे, चिन्तन करे, तो धीरे-धीरे इस ध्यान के द्वारा वह निर्धारित ध्येय में तन्मय, एकाग्र और एकरूप हो सकता है। इन सब में प्रधानता आत्मारूप ध्येय की रहेगी। इन सबका विस्तृत वर्णन और विधि का निरूपण धवला, तत्त्वानुशासन, ज्ञानार्णव, महापुराण, तिल्लोयपण्णत्ति, राजवार्तिक, द्रव्यसंग्रह आदि ग्रन्थों से जान लेना चाहिए। शुद्ध पारिणामिकभाव भी इसी ध्येय के अन्तर्गत है। स्वरूपावलम्बन ध्येय में सहायक पिण्डस्थ आदि ध्यान स्वरूपावलम्बन में सहायक पिण्डस्थ आदि ध्यानों का स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार है-आचार्य हेमचन्द्र और आचार्य शुभचन्द्र ने पिण्डस्थ आदि चार धर्मध्यान के अवान्तर भेदों का वर्णन किया है। पिछले पृष्ठ का शेष(ग) ध्यानस्यालम्बनं कृत्स्नं जगत्तत्वं यथास्थितम्। विनाऽत्माऽत्मीय-संकल्पाद् औदासीन्ये निवेशितम्॥ -महापुराण २१/१७ (घ) आलंबणेहिं भरियो लोगो ज्झाइदुमणस्स खवगस्स। जं जं मणसा पेच्छइ, तं तं आलंबणं होइ॥ -धवला १३/५, ४, २६/३२/७0 १. इन सब ध्येय के स्वरूप तथा इनकी ध्यान विधि के विषय में देखें-धवला १३/५, ४, २६/६९/४; ज्ञानार्णव ३१/१७; महापुराण २१/१२०-१३०; द्रव्यसंग्रह टीका ५०/२०९/८; तत्त्वानुशासन १३० तथा ११९, १४0; तिल्लोयपण्णत्ति ९/४१; राजवार्तिक ९/२७/७/६२५ तथा नियमसार ता. वृ. ४१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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