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________________ ॐ स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति ® ४०३ & प्रशस्त और अप्रशस्त ध्यान : स्वरूप और अन्तर मन की धारा जब बहिर्मुखी होती है, तब विषय-वासनाओं, विषयभोगों में धन, परिवार, शरीर आदि की चिन्ता में तथा मोह, लोभ, सुरक्षा और क्रूरता विषयक हिंसादिप्रधान पापात्मक चिन्तन में खोया रहता है, तब उसकी धारा अधोमुखी होकर अशुभ की ओर बहती है और जब मन की विचारधाराएँ दया, करुणा, क्षमा, मृदुता, नम्रता, विनय, भक्ति शुद्ध आत्मा-परमात्मा के चिन्तन की ओर बहती है, तब वह ऊर्ध्वमुखी होती है, ऐसी स्थिति में मन शुभ या शुद्ध की ओर गति करता है। जैसे गाय का भी दूध होता है, आक का भी। दोनों सफेद होते हुई भी दोनों के गुणधर्म में महान् अन्तर होता है, एक अमृत का काम करता है, एक विष का। एक जीवनी-शक्ति देता है, तो दूसरा जीवन को नष्ट कर डालता है। यही अन्तर शुभ और अशुभ ध्यान में है। दोनों शुभ ध्यान मोक्ष के हेतु हैं और दोनों अशुभ ध्यान दुर्गति (नरक-तिर्यंचगति) के।' 'उत्तराध्ययनसूत्र' में दो शुभ ध्यानों को ही उपादेय और सम्यक्तप बताया है। अशुभ ध्यान : तप के कारण नहीं, न ही मोक्ष के हेतु तप के प्रकरण में अशुभ ध्यान कथमपि उपादेय न होने से परवर्ती आचार्यों ने तो इसको 'ध्यान' के पद से ही हटा दिया है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने ध्यान की परिभाषा इसी सन्दर्भ में की है-"शुभैकप्रत्ययो ध्यानम्।"-शुभ और पवित्र अवलम्बन पर एकाग्र होना ध्यान है। . जीवों के आशय की अपेक्षा से ध्यान के तीन प्रकार . . 'ज्ञानार्णव' में पूर्वोक्त चार प्रकार के ध्यानों को आशय (ध्याता के परिणाम) की दृष्टि से शुभ, अशुभ और शुद्ध इन तीन कोटियों में वर्गीकृत कर दिया गया है, क्योंकि जीवों का आशय तीन प्रकार का है। पुण्याशय की दृष्टि से किये गये ध्यान शुभ कोटि के होते हैं, उसके विपरीत पाप के आशय से किये गये ध्यान अशुभ कोटि के होते हैं और शुद्धोपयोगसंज्ञक ध्यान शुद्ध कोटि के होते हैं। इस दृष्टि से धर्मध्यान को शुभ कोटि में, आर्त-रौद्रध्यान को अशुभ कोटि में और शुक्लध्यान को शुद्ध कोटि में समझना चाहिए। १. अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता झाएज्जा सुसमाहिए। धम्म-सुक्काइं झाणाई, झाणं तं तु बुहा वए। २. द्वात्रिंशक् द्वात्रिंशिका (आचार्य सिद्धसेन) से भाव ग्रहण १८/११ -उत्तरा. ३०/३५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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