SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ ४०२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ अवलम्बन पर अवस्थित हो जाती है, वही ध्यान है। उनके अनुसार व्यग्रचित्त ज्ञान और एकाग्रचित्त ध्यान कहलाता है।" दीपशिखा के समान शरीर को निष्कम्प रखने का संकल्प करके जो स्थिरकाय बनता है, उसे कायिक ध्यान कहते हैं। इसी प्रकार दृढ संकल्पपूर्वक वाणी का मौन करना वाचिक ध्यान है और साथ ही मन एकाग्र होकर अपने लक्ष्य में एकाग्र हो जाता है, वहाँ मानसिक ध्यान है। मुख्यतया मन की एकाग्रता के साथ-साथ वचन और काया की एकाग्रता भी गौणरूप से होती है। मनसहित वचन और काया की जब एकरूपता होती है, वहाँ पूर्ण ध्यान होता है। इसलिए व्यवहारदृष्टि से ध्यान का यही परिष्कृत लक्षण बताया गया-मन का किसी एक विषय में, किसी अवलम्बन में या ध्येय में स्थिर हो जाना-एकाग्र हो. जाना ध्यान है।' क्या इन्हें भी ध्यान कहेंगे? ___ प्रश्न होता है, यदि ध्यान का यही लक्षण है तो कोई कामी पुरुष किसी महिला के रूप में आसक्त होकर उसी का एकाग्रतापूर्वक चिन्तन करता है, लोभी धन कमाने की योजना में मशगूल हो, कोई हत्यारा, चोर आदि अपनी योजना को क्रियान्वित करने में ही दत्तचित्त हो, बगुला मछली आदि जल-जन्तुओं को पकड़ने में ही एकाग्र और स्थिर होकर बैठा हो, तो क्या इन सबके पापात्मक चिन्तन, एकाग्रतापूर्वक अपने विचार में लीनता को ध्यान कहा जायेगा? यद्यपि इनका पापात्मक चिन्तन है, फिर भी मन की एकाग्रता को लेकर प्राचीन आचार्यों ने तथा आगमों ने इनके दुश्चिन्तन को भी ध्यान की संज्ञा दी है। ध्यान के दो प्रकार व चार भेद और ध्यान के दो भेद किये हैं-प्रशस्त (शुभ) और अप्रशस्त (अशुभ)। अशुभ ध्यान भी दो प्रकार का है और शुभ ध्यान भी दो प्रकार का है; किन्तु अशुभ को निर्जरा या मोक्ष का कारण नहीं माना है, उससे पाप (अशुभ) कर्मबन्ध का ही और उसके फलस्वरूप दुर्गति का कारण माना है। इस प्रकार ध्यान के कुल चार भेद शास्त्र में बतलाये गये हैं३–आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान। १. (क) 'महावीर की साधना का रहस्य' में उद्धृत अकलंक का ध्यानलक्षण, पृ. १६९ (ख) 'जैन आचार' से भाव ग्रहण, पृ. ५९३ २. 'जैनधर्म में तप' से भाव ग्रहण, पृ. ४७१ ३. (क) स्थानांग, स्था. २ (ख) चत्तारि झाणा, प. तं.-अढे झाणे रोद्दे झाणे धम्मे झाणे सुक्के झाणे। -स्थानांग, स्था.४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy