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ॐ स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति ॐ ४०१ *
_ 'नियमसार' में कहा गया है-"ध्यान में लीन साधक समस्त दोषों का परित्याग (निवारण) कर सकता है। इसलिए ध्यान ही प्रकारान्तर से समस्त दोषों (अतिचारों) का प्रतिक्रमण है।''
व्यवहारदृष्टि से ध्यान की परिभाषाएँ 'ध्यानशतक' के अनुसार स्थिर अध्यवसान ध्यान है, चित्त चंचल है, उसका किसी एक वस्तु में स्थिर या लीन हो जाना ध्यान है। 'तत्त्वार्थसूत्र' और 'जैनतत्त्व दीपिका' के अनुसार-“एकाग्र चिन्तन एवं मन-वचन-काया की प्रवृत्तिरूप योग का निरोध ध्यान है।" 'अभिधान चिन्तामणि कोष' में ध्यान का परिष्कृत लक्षण दिया है-“अपने विषय (ध्येय) में मन का एकाग्र हो जाना ध्यान है।" 'आवश्यकनियुक्ति' में आचार्य भद्रबाहु ने भी इसी तथ्य का समर्थन किया है“चित्त को किसी एक विषय में स्थिर = एकाग्र करना ध्यान है।" 'योगदर्शन' में ध्यान का लक्षण दिया है-“तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।” अर्थात् उसमें (जिस देश में चित्त को बाँधा या धारण किया है, उस लक्ष्य-प्रदेश में) प्रत्यय की (ज्ञानवृत्ति की) एकतानता (एकाग्रता) बनी रहना ध्यान है। इस लक्षण के अनुसार आचार्य पतंजलि ने ध्यान का सम्बन्ध केवल मन (चित्त) से ही माना है। परन्तु जैनाचार्यों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने ध्यान को केवल मानसिक ही नहीं माना, अपितु वाचिक और कायिक भी माना है। जैसे कि आचार्य अकलंक ने कहा-“जैसे निर्वात प्रदेश में प्रज्वलित दीपशिखा प्रकम्पित नहीं होती, वैसे ही निराकुल प्रदेश में अपने विशिष्ट वीर्य से निरुद्ध अन्तःकरण की वृत्ति एक
पिछले पृष्ठ का शेष(ग) पाषाणे स्वर्णं काष्ठेऽग्निः विना प्रयोगैः। न यथा दृश्यन्ते इमानि ध्यानेन विना तथाऽऽत्मा।
-ज्ञानसार ३६ (घ) मोक्षः कर्मक्षयादेव स चात्मज्ञानतो भवेत्। . ध्यानसाध्यं मतं तच्च, तद्ध्यानं हितमात्मनः।।
-योगशास्त्र ४/११३ १. झाण-णिलीणो साहू परिचागं कुणइ सव्व दोसाणं। तम्हा तु झाणमेव हि सव्वादिचारस्स पडिक्कमणं॥
-नियमसार ६३७ २. (क) जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं, जं चले लयं तदं चित्तं।
-ध्यानशतक (ख) उत्तम-संहननस्यैकाग्र-चिन्ता-निरोधो ध्यानम्। -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ९, सू. २७ (ग) एकाग्रचित्ता योगनिरोधो वा ध्यानम्।
___-जैनसिद्धान्त दीपिका (आचार्य श्री तुलसी) ५/२८ (घ) ध्यानं तु विषये तस्मिन्नेक-प्रत्यय-संततिः। -अभिधान चिन्तामणि कोष (हेमचन्द्राचार्य) (ङ) चित्तस्सेगग्गया हवइ झाणं।
__-आवश्यकनियुक्ति (हरिभद्रसूरि)
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