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________________ ॐ ४०० ® कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 प्रत्येक मानव में तन, मन और वचन की शक्तियाँ पड़ी हैं, परन्तु उन शक्तियों का कई व्यक्ति दुरुपयोग करते हैं, कई उपयोग ही नहीं करते, विरले ही महाभाग मानव होते हैं, जो अपनी शक्तियों से परिचित होकर उनका नियमित रूप से यथार्थ उपयोग-सदुपयोग करते हैं, ताकि वे सामान्य आत्मा से परमात्मा तक पहुँच सकें और सर्वकर्मों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकें। सुध्यान ही एकमात्र उत्कृष्ट माध्यम है, जिसकी साधना से मनुष्य अपनी आत्म-शक्तियों को विकसित कर सकता है, जीवन के विविध उतार-चढ़ावों में विकट परिस्थितियों में मन को संतुलित, शान्त और स्थिर रखकर सामना कर सकता है। इस प्रकार ध्यान-साधना से अपनी सुषुप्त शक्तियों को जाग्रत करके परमात्मभाव-वीतरागंभाव को प्राप्त कर सकता है। ध्यान-साधना का यही सर्वोत्कृष्ट प्रयोजन है।' . ध्यान का महत्त्व : विभिन्न दृष्टिकोणों से ध्यान का महत्त्व बताते हुए अर्हत गदभाली ने कहा है-"जैसे मनुष्य का सिर काट लेने पर उसकी मृत्यु हो जाती है, वृक्ष की जड़ काट लेने पर वह समाप्त हो जाता है, वैसे ही सुध्यान को छोड़ देने पर धर्म चेतनाशून्य हो जाता है। अर्थात् शुद्ध धर्म को सुध्यान से अलग कर दें तो उसकी भी वहीं गति होगी, जो मस्तक से विहीन मनुष्य की या मूल से रहित वृक्ष की होती है।" 'भगवती आराधना' में कहा गया है-“कषायों के साथ युद्ध करने में क्षपक के लिए ध्यान आयुध और कवच के समान है। जैसे रत्नों में वज्ररत्न, सुगन्धित पदार्थों में गोशीर्ष चन्दन, मणियों में वैडूर्यमणि उत्तम और श्रेष्ठ है, वैसे ही ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप में ध्यान ही सारभूत व सर्वोत्कृष्ट है।" 'ज्ञानसार' में कहा है-“जिस प्रकार पाषाण में स्वर्ण और काष्ठ में अग्नि बिना प्रयोग के दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार ध्यान के बिना (शुद्ध) आत्मा नहीं दिखाई देती।" 'योगशास्त्र' में कहा गया है-“कर्मों के क्षय से मोक्ष होता है और कर्मक्षय होता है-आत्म-ज्ञान से। आत्म-ज्ञान ध्यान से प्राप्त होता है। इसलिए शुद्ध आत्म-स्वरूप को पाने के लिए ध्यान आत्मा के लिए हितकर है।"२ १. 'महावीर की साधना का रहस्य' से भाव ग्रहण २. (क) सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य। सव्वस्स साधुधम्मस्स तहा झाणं विधीयते॥ -ईसिभासियाई (ख) एवं कसायजुद्धमि हवदि खवयस्स आउधं झाणं। रणभूमीए कवचं होदि ज्झाणं कसायजुद्धमि॥ वइरं रदणेसु जहा गोसीसं चंदणं व गंधेसु। वेरूलियं व मणीणं, तह ज्झाणं होइ खवमस्स। -भगवती आराधना १८९१-१८९२/१९०२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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