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ॐ स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति 8 ३९९ ॐ
___ 'द्रव्यसंग्रह' में इसी सहज शुद्ध पारमार्थिक ध्यान की ओर इंगित किया गया है"हे साधक ! विचित्र ध्यान की सिद्धि से यदि चित्त को स्थिर करना चाहता है, तो इष्ट-अनिष्ट पदार्थों पर मोह मत कर, राग और द्वेष भी मत कर। किसी भी प्रकार की काया से चेष्टा, वाणी से जल्पन और मन से चिन्तन मत कर, ताकि मन स्थिर हो जाये। आत्मा का आत्मा में रत (लीन) हो जाना ही परम (उत्कृष्ट) ध्यान है।"
इस प्रकार धर्म और शुक्लध्यान का जो प्रयोजन है-आत्मा को परमात्मा = शुद्ध आत्मा तक पहुँचाना, वह भलीभाँति सिद्ध हो सकता है।'
मन को राग-द्वेष से रहित करने के लिए मन का निग्रह करना-मन को एकाग्र करना आवश्यक है। योगशास्त्रियों ने मन की चार अवस्थाएँ निरूपित की हैंविक्षिप्तमन, यातायातमन, श्लिष्टमन और सुलीनमन। इनमें से अन्तिम प्रकार का सुलीनमन ही ध्यान-साधना के योग्य है, क्योंकि यही मन शास्त्रों के स्वाध्याय, मनन से तथा परमात्मा और आत्मा के चिन्तन से ध्यान योग्य बन सकता है। भगवान महावीर से मन को स्थिर और एकाग्र व निर्मल रखने का उपाय पूछा तो उन्होंने भी स्वाध्याय और ध्यान से युक्त होने से मन को स्थिर एवं निर्मल रखना बताया। 'योगदर्शन' और 'गीता' में मनोनिरोध के दो उपाय बताये हैं-अभ्यास और वैराग्य। परन्तु अभ्यास किसका और कैसे? यह प्रश्न उठने पर स्वाध्याय और ध्यान का अभ्यास तथा उनके मनन-ध्यान से प्राप्त वैराग्यभावना से मन को एकाग्र किया जा सकता। अतः ध्यान का एक प्रयोजन यह भी है कि उसके द्वारा मन को एकाग्र और सुस्थिर करके सुध्यान के साथ उस राग-द्वेषरहित शान्त निर्मल मन को जोड़ा जा सके और उसके माध्यम से परोक्षसत्ता (शुद्ध आत्मा) तक पहुँचा जा सके।
ध्यान-साधना के मुख्य हेतु 'बृहद्र्व्य संग्रह' में ध्यान के पाँच हेतु बताये गये हैं-वैराग्य, तत्त्वज्ञान, निर्ग्रन्थता, समचित्तता और परिग्रहजय।
-द्रव्यसंग्रह
१. मा मुज्झह ! मा रज्जह, मा दुस्सह ! इट्ठाणिट्ठ-अढेसु।
थिरमिच्छह जइ चित्तं, विचित्तं, विचित्त-झाण-पसिद्धिए॥ मा चिट्ठह मा जंपह, मा चिन्तह ! किंवि जेण होइ थिरो।
अप्पा अप्पंमि रओ, इणमेव परं हवे झाणं । २. (क) 'योगशास्त्र' (आचार्य हेमचन्द्र) से भाव ग्रहण
(ख) सज्झाय-झाण-संजुत्ते।। (ग) अभ्यास-वैराग्याभ्यां तन्निरोधः।
(घ) अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते। ३. वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं नैर्ग्रन्थ्यं समचित्तता।
परिग्रह-जयश्चेति पंचैते ध्यानहेतवः॥
-उत्तराध्ययन
-योगदर्शन -भगवद्गीता
-बृहद्रव्यसंग्रह टीका, पृ. २८१
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