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३९८ कर्मविज्ञान : भाग ७
पुनः होने का निरोध हो, सम्यक्तप से संवर और निर्जरा दोनों एक साथ होते हैं। ध्यानतप से नये आवरणों का निरोध और पुराने आवरणों का क्षय ये दोनों एक साथ निष्पन्न हो सकते हैं। इस अपेक्षा से ध्यान' एक परिपूर्ण साधना है।
ध्यान क्यों किया जाये ? ध्यान का प्रयोजन क्या है ?
साधक का जीवन दो सत्ताओं के बीच में चल रहा है । एक सत्ता प्रत्यक्ष है और दूसरी परोक्ष । प्रत्यक्ष सत्ता मन की है और परोक्ष सत्ता है - शुद्ध आत्मा की, परमात्मा की। साधक का लक्ष्य कर्मलिप्त अशुद्ध आत्मा से परमात्मा ( शुद्ध कर्ममुक्त आत्मा) तक पहुँचना है; जो परोक्ष सत्ता है । यद्यपि वह परोक्ष सत्ता बहुत ही शक्तिशाली है। अपने तक पहुँचने का मार्ग मुमुक्षु और पुरुषार्थी के लिए वह बन्द नहीं होने देती । परन्तु प्रत्यक्ष सत्ता उस परोक्ष सत्ता तक पहुँचने के मार्ग में बहुत ही बाधाएँ और कठिनाइयाँ उपस्थित करती रहती हैं। आत्मा अमूर्त होने के कारण दिखाई नहीं देती । परन्तु वह मन, वचन और काया के माध्यम से अपने को प्रगट करती है। ये तीनों आत्मा से प्राण पाकर सक्रिय होते हैं । आत्मा के ये तीनों उपकरण अचेतन हैं। इनमें चेतना की धारा आत्मा से निकलती है, वह प्राणों से सीधी सम्बद्ध होने से प्राणधारा हो जाती है। मन के साथ जब यह चैतन्यधारा ( प्राणधारा) मिलती है, तो मन अत्यन्त सक्रिय हो जाता है । मन में निर्मल चेतना का योग भी सक्रियता लाता है और मलिन चेतना का योग भी । इससे मन की दो अवस्थाएँ निष्पन्न होती हैंराग-द्वेषरहित और राग-द्वेषसहित । अगर हमारी आत्मा को परोक्षसत्ता तक पहुँचना है तो ध्यान द्वारा ही पहुँचा जा सकता है, इससे उत्तम कोई उपाय नहीं है । परन्तु ध्यान की भूमिका में विचार करना पड़ेगा कि मन के साथ किस प्रकार की चेतना को जोड़ा जाये ? उचित तो यह होगा कि मन के साथ राग-द्वेषयुक्त चेतना न जुड़कर राग-द्वेषरहित चेतना जुड़े। आशय यह है कि प्राण की धारा मन को सक्रिय बनाये, तब उसके साथ मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय न आये। जब मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय तथा राग-द्वेष के द्वार बन्द कर दिये जायेंगे, तब जो चेतना धारा मन के साथ जुड़ेगी, वह मन को सक्रिय और चंचल बनायेगी, किन्तु उसमें विवेक, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन होगा, क्योंकि ऐसी स्थिति अनासक्त, अप्रमत्त या वीतराग - चेतना की होगी । वह सहज एवं शुद्ध या सम्यक् ध्यान होगा, जिससे कर्मों की निर्जरा और कर्मों से मुक्ति शीघ्र हो सकेगी। ऐसा ध्यान ही पूर्वोक्त परोक्ष सत्ता तक पहुँचाने में सशक्त माध्यम हो सकेगा।
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(क) षट्खण्डागम ५, पुस्तक १३, पृ. ६४
(ख) 'योगशास्त्र' (आचार्य हेमचन्द्र ) से भाव ग्रहण
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