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________________ ॐ स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति ॐ ३९७ ॐ ध्यान में 'ठाणेणं, मोणेणं झाणेणं' के अनुसार काया की स्थिरता, वाणी से मौन तथा मन की अपने विषय में लीनता होने से तीनों की अखण्डता, स्थिरता, एकरूपता और एकाग्रता दृढ़ीभूत होती है। इसीलिए 'तत्त्वानुशासन' में कहा गया है-“स्वाध्याय में उपयुक्त एकाग्रता प्राप्त होने पर (उसे घनीभूत एवं दृढ़ीभूत करने हेतु) ध्यान का अभ्यास करे और ध्यान करते-करते जब एकाग्रता खण्डित होने लगे तब पुनः स्वाध्याय में संलग्न हो जाये। इस प्रकार स्वाध्याय और ध्यान की सम्प्राप्ति से परमात्मा (शुद्ध आत्मारूप ध्येय) प्रकाशित हो जाता है।" अर्थात् इस प्रकार स्वाध्याय और ध्यान की आवृत्ति से मन शान्त और निर्मल होता जाता है, कर्मों का आवरण क्षीण होने लगता है, फिर शान्त और निर्मल चित्त (मन) में परमात्मा' (शुद्ध आत्मा) की छवि स्फुरित हो जाती है, अनुभवगम्य हो जाती है। द्वादशतप के शेष सब प्रकार ध्यानद्वय के साधनमात्र हैं वैसे तो कर्मावरणों को क्षीण करने के लिए बारह प्रकार का तप विहित है। परन्तु उनमें भी मुख्यतया दो तप हैं-स्वाध्याय और ध्यान। इन दोनों से कर्मावरण शीघ्र दूर होकर निर्जरा और मोक्ष की ओर साधक तीव्र गति से प्रस्थान करता है। स्वाध्याय की अपेक्षा ध्यान का अधिक महत्त्व किन्तु इन दोनों में मुख्य है ध्यान। यह कहना कोई अत्युक्तिपूर्ण नहीं होगा कि तप के शेष सब प्रकार सुध्यानद्वय के अंगोपांग हैं। 'षट्खण्डागम' में कहा गया हैधर्म एवं शुक्लध्यान परम तप हैं। बाकी जितने तप हैं, वे सब इस (ध्यानद्वय) के साधनमात्र हैं। वाचक उमास्वाति के मत से-परम शुक्लध्यानी की ध्यानाग्नि में अपने समूचे कर्मावरणों को शीघ्र ही भस्म करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। आचार्य हेमचन्द्र का यह कथन इस तथ्य का साक्षी है-“ध्यानाग्नि-दग्धकर्मा तु सिद्धात्मा स्यान्निरंजनः।''-ध्यानरूप अग्नि के द्वारा आत्मा कर्मरूप काष्ठ को भस्म करके अपना शुद्ध-बुद्ध सिद्ध-निरंजन-स्वरूप प्राप्त कर लेता है।' कर्मों से मुक्ति पाने के दो साधन जैन-कर्मविज्ञान में बताये गये हैं-संवर और निर्जरा। समिति-गुप्ति, दशविध उत्तम धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र आदि की साधना से सरागसंयमी के कर्मावरण क्षीण (निर्जरा) होते हैं, किन्तु पुनः निर्मित हो जाते हैं। कर्मों से मुक्ति पाने के लिए आवश्यक है-कर्मों के आवरण क्षीण हों, आवरणों के १. (क) 'आवश्यकसूत्र' में 'तम्प उनरीकरण' का पाठ (ख) 'जैन आचार : स्वरूप और विश्लेषण' से भाव ग्रहण, पृ. ५९३ (ग) स्वाध्यायाद् ध्यानमध्यास्तां, ध्यानात्स्वाध्यायमामनेत्। · स्वाध्याय-ध्यानसम्पत्त्या, परमात्मा प्रकाशते॥ -तत्त्वानुशासन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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