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________________ ॐ स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति ॐ ३९५ * धर्मकथा-स्वाध्याय का यह पाँचवाँ अंग है। पढ़ा हुआ, चिन्तन-मनन किया हुआ अथवा अनुभव किया हुआ अथवा कण्ठस्थ किया हुआ श्रुतज्ञान जब लोक-कल्याण की भावना से शब्दों के द्वारा प्रकट करके भावुक श्रोताओं या भव्य धर्मानुरागी को सुनाया जाता है, तब वह तत्त्व कथन धर्मकथा कहलाता है। इसे ही भाषण, प्रवचन, धर्मोपदेश या व्याख्यान कहते हैं। धर्मकथा से श्रुतज्ञान की वृद्धि होती है, मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति होती है। धर्मकथा केवल निर्जरा के उद्देश्य से करनी चाहिए। धर्मकथाकार को काफी अध्ययन, अनुभव तथा स्वमत-परमत का प्रामाणिक ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। साथ ही, 'आचारांगसूत्र' के अनुसार-“पुण्यवान् हो या तुच्छ हो, दोनों को पक्षपातरहित होकर समभाव से प्रसन्नतापूर्वक धर्म-कथन करना चाहिए।" 'सूत्रकृतांगसूत्र' में स्पष्ट कहा है-“धर्म-कथन करता हुआ श्रमण अन्न, पान, वस्त्र, लयन (मकान), शयन (शय्यादि) के लिए तथा अन्य विभिन्न प्रकार के कामभोगों के साधनों-सुख-सुविधाओं के लिए धर्मकथा न करे। अग्लान (प्रसन्न) भाव से धर्म-कथन करे।' एकमात्र निर्जरा (कर्मक्षय) के लिए धर्मकथा करे।" सत्कार, मान और पूजा-प्रतिष्ठा की भावना से भी धर्मोपदेश नहीं करना चाहिए। सत्कार मान और प्रतिष्ठा-प्रशंसा-पूजा की भावना से की गई धर्मकथा स्वाध्यायतप न होकर यानी कर्मनिर्जरा की कारण न होकर, उलटे अशुभ कर्मबंध की कारण बन जाती है, जबकि निःस्पृहभाव से धर्मकथा करने से साधक कर्मनिर्जरा कर लेता है। “धर्मकथा से प्रवचन (धर्मसंघ या श्रुत) की प्रभावना करता है। प्रवचन की प्रभावना से जीव भविष्य में शुभ फल देने वाले (शुभ) कर्मों का बंध करता है।" भगवान महावीर के पास जो भी, जिस कक्षा का व्यक्ति होता उसके अनुरूप धर्म-कथन करते थे। इसके लिए शास्त्र में कहा गया-“धम्मो कहिओ।"२ धर्मकथा के ४ भेद हैं-(१) आक्षेपणी, (२) विक्षेपणी, (३) संवेगिनी, और (४) निर्वेदिनी। इनके स्वरूप तथा कुल ३२ भेद-प्रभेदों का वर्णन स्थानांग ४/२ की टीका से जान लेना चाहिए। १. से भिक्खू धम्म किट्टमाणे नो अन्नस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा, नो पाणस्स हेउं धम्म..., नो वत्थस्स हेउं धम्म.., नो लेणस्स हेउं धम्म.., नो सयणस्स हेउं धम्म., जो अन्नेसिं विरूवरूवाणं कामभोगाणं हेउं धम्म., अगिलाए धम्ममाइक्खेज्जा; नन्नत्थ कम्मनिज्जरट्ठाए धम्ममाइक्खेज्जा। -सूत्रकृतांग, श्रु. २, अ. १, सू. १५ २. (क) जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ। जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ॥ -आचारांग, अ. ३, उ. १ (ख) धम्मकहाए णं निज्जरं जणयइ। धम्मकहाए णं पवयणं पभावेइ। पवयण-पभावेणं जीवे आगमेसस्स भद्दत्ताए कम्मं निबंधइ। -उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. २३ - ३. (क) सूत्रकृतांग, श्रु. २, अ. १ (ख) स्थानांग, स्था. ४, उ. २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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