________________
* ३९४ * कर्मविज्ञान : भाग ७ *
से जीव को व्यंजन (अक्षर) उपलब्ध हो जाते हैं तथा व्यंजन लब्धि (पदानुसारिणी लब्धि = एक अक्षर या पद के आधार से शेष व्यंजनों (पदों) को उपलब्ध कर लेने की शक्ति) प्राप्त हो जाती है।" अतः परिवर्तना स्वाध्याय करने में आलस्य नहीं करना चाहिए। परिवर्तना करने से ज्ञान पच जाता है, परिपक्व हो जाता है। विद्वान केवल पढ़ने से नहीं, याद रखने से बनता है।'
अनप्रेक्षा-पढ़े हुए सूत्रार्थ के किसी एक तत्त्व पर या पुस्तक अथवा ग्रन्थ में पढ़े हुए किसी एक विषय पर एकाग्रचित्त होकर गम्भीरतापूर्वक तदनुकूल चिन्तन-मनन करना अनुप्रेक्षा स्वाध्याय है। जैसे किसी व्यक्ति ने भगवान पर अनुप्रेक्षा की। सोचा-भगवान कौन होते हैं, उनका क्या स्वरूप है ? वे साकार हैं या निराकार? वे जगत्कर्ता हैं या नहीं? यदि जगत्कर्ता हैं तो जगत् में एक सुखी, एक दुःखी क्यों? यदि दुःख-सुख स्वकृत कर्मों के अनुसार मिलते हैं तो भगवान जगत्कर्ता कैसे? यदि वे अकर्ता हैं और किसी को कुछ देते-लेते नहीं, तो फिर उनका ध्यान, भजन-स्मरण-कीर्तन करने से क्या लाभ? इस प्रकार तदनुकूल प्रेक्षण करते हुए सीढ़ी-दर-सीढ़ी आगे से आगे उस तत्त्व या विषय की ऊँचाई पर पहुँचा जाता है। अनुप्रेक्षा एक प्रकार से चिन्तन की सीढ़ियाँ हैं। अनुप्रेक्षा एक प्रकार से ध्यान की स्थिति है। इसका विशेष वर्णन ध्यान के प्रकरण में किया जायेगा।
अनुप्रेक्षा का विशिष्ट लाभ बताते हुए भगवान ने कहा-'अनुप्रेक्षा (में एकाग्रता) होने पर आयुकर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरणीयादि सात कर्मों की प्रकृतियों के प्रगाढ़ बंधन को शिथिल कर लेता है; दीर्घकाल तक दुःखपूर्वक भोगने योग्य अशुभ कर्मों की स्थिति (कालावधि) को अल्पकालीन (थोड़े काल की) कर लेता है। उनके तीव्र रसानुभाव को मन्द रसानुभाव कर लेता है। अर्थात् उनका दुःखदायक फल भी बहुत कुछ नष्ट होकर (भोगने योग्य) स्वल्प रह जाता है। बहुकर्मप्रदेशों को अल्पकर्मप्रदेशों में परिवर्तित कर देता है। आयुकर्म का बन्ध कदाचित् करता है, कदाचित् नहीं करता। असातावेदनीय कर्म का पुनः पुनः उपचय नहीं करता। संसाररूपी अटवी, जोकि अनादि और अनवदग्र (अनन्त) है, दीर्घमार्ग से युक्त है, जिसके नरकादि गतिरूप चार अन्त हैं, उसे अनुप्रेक्षा बढ़ाने वाली आत्मा) शीघ्र ही पार (करके मोक्ष के अनन्त शाश्वत सुख को प्राप्त) कर लेती है।'२
२
१. परिवडणाए वंजणाई जणयइ, वंजणलद्धिं च उप्पाएइ। -उत्तराध्ययन २९/२१ ___ अणुप्पेहाए णं आउयवज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ घणियवंधणबद्धाओ सिढिलवंधणबद्धाओं
पकरेइ। दीहकालट्ठिइयाओ हस्स-कालट्टिइयाओ पकरेइ। तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ पकरेइ। आउयं च णं कम्मं सियाबंधइ, सियानोबंधइ। असायावेयणिज्जं णं कम्मं नो भुज्जो-भुज्जो उवचिणाइ। अणाइयं च अणवदग्गंदीहमद्धं चाउरंतं संसारकांतारं विप्पामेव वीइवयइ।
-वही २९/२२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org