SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * ३९० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ बाहर की चाँदनी को छोड़ भीतर की चाँदनी विरले ही देखते हैं आकाश में चमकने वाले चन्द्रमा की चाँदनी नभस्तल और भूतल को स्पर्श करती है। वह बाहर के अन्धकार को मिटाती है, अध्यात्म-ज्ञानरूपी चन्द्र की चाँदनी भीतर में है, न तो वह बाहर से आती है और न ही किसी के द्वारा उद्योतित की जाती है। उस चाँदनी का प्रकाश भीतर आत्मारूपी अन्तस्तल में है, उसका प्रकाश स्वयं प्रस्फुटित होता है। जैनदर्शन अनेकान्तवादी होने के नाते उपादान को ही सब कुछ नहीं मानता, वह निमित्त को भी महत्त्व देता है। उक्त भीतर के अध्यात्म-ज्ञानरूपी चन्द्र की चाँदनी को श्रेष्ठ ग्रन्थों और शास्त्रों के स्वाध्याय द्वारा ही प्रगट किया जा सकता है, बशर्ते कि स्वाध्यायकर्ता उस अध्यात्म-ज्ञानरूपी चन्द्र की चाँदनी को प्रगट करने के लिए अन्तर्मुखी हो। आज अधिकांश व्यक्ति भीतर की चाँदनी को जानने-देखने के द्वार और खिड़कियाँ बंद किये हुए हैं। इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त, हृदय आदि सबकी दिशा प्रायः बहिर्मुखी - बनी हुई है। उसे अन्तर्मुखता में बदलने से ही स्वाध्याय के द्वारा अध्यात्म-ज्ञानरूपी चन्द्र की चाँदनी प्रगट हो सकती है; अन्तस्तल में खिल सकती है। भीतर की चाँदनी अन्तःस्वाध्याय से देखने वाले ये महाभाग ! __मृगापुत्र के अन्तश्चक्षु अपने अन्तर के अध्ययन (आन्तरिक स्वाध्याय) से खुल गये थे। उनके अन्तर के स्वर फूट पड़े-“मैं इस अशुचि और अशाश्वत शरीर में आनन्द नहीं पा रहा हूँ, जो एक दिन छूट जायेगा। मुझे उस शाश्वत की खोज करनी है, जो सदैव साथ रहे।" समुद्रपाल ने बंदी बने हुए चोर को वध्यस्थान ले जाते देखा और उनके अन्तर में स्वाध्याय की चाँदनी सहसा प्रस्फुष्टित हो गई। वे प्रतिबुद्ध हो गये। गर्दभालि मुनि अन्तर के स्वाध्यायलोक से आलोकित हुए और उनका आन्तरिक स्वर फूट पड़ा-“राजन् ! मैं तुम्हें अभय देता हूँ, तुम भी तो समस्त जीवों को अभय दो, क्यों किसी की हिंसा में आसक्त होते हो?" हरिकेशबल की अन्तर की खिड़की खुल चुकी थी, भीतर की चाँदनी को देखने के लिए। इसीलिए कहना पड़ा भगवान महावीर को-"हरिकेशबल में साक्षात् तपोविशेष दिखाई देता है, कोई जाति-विशेष नहीं।" भृगु-पुरोहित के पुत्रों ने जब अन्तर की ज्योत्सना के प्रकाश में साधु-जीवन द्वारा परम आत्मा को पाने की मन में ठान ली, तब उनके निश्चय को कोई बदल न सका। भीतर की ज्योति जगी और महारानी कमलावती ने राजा से कहा-"यह परिग्रह दुःखदायक है, धर्म ही एकमात्र रक्षक है, अन्य कोई नहीं।' ये और इस प्रकार के अन्तःस्वाध्याय के स्वर साक्षी हैं अन्तर की चाँदनी के, जिसे सुनने-देखने के लिए इन साधकों ने अन्तर की खिड़कियाँ खोल दी थीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy