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* स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति ॐ ३८९ ॐ
अश्लील या हिंसादि प्रेरक साहित्य पढ़ना स्वाध्याय नहीं है यह ध्यान रहे कि सभी प्रकार के शास्त्रों, ग्रन्थों या पुस्तकों का अध्ययन स्वाध्याय की कोटि में नहीं आता। जैसे गलत तरीके से किया गया व्यायाम शरीर को लाभ के बदले हानि पहुंचाता है; अहितकर, कुपथ्यकर भोजन शरीर को शक्ति देने के बदले व्याधि पैदा कर देता है, उसी प्रकार कामोत्तेजक, विकारवर्द्धक, अश्लील एवं हिंसाप्रेरक साहित्य, चौर्यशास्त्र, कामशास्त्र अथवा हिंसा-असत्यादि प्रेरक शास्त्र या ग्रन्थ अथवा केवल सांसारिक विषयसुखप्रेरक एवं कामनाप्रेरक साहित्य भी जीवन में संवर-निर्जरा के बदले अशुभ कर्मवर्द्धक, पापबंधक एवं अनिष्टकारक होता है। उनवांदे, विकारोत्तेजक एवं हिंसाप्रेरक पढ़ने से मन, बुद्धि और चित्त दूषित, कुण्ठित और संयम में दुर्बल हो जाता है। चाहे थोड़ा ही पढ़ो, पर जो भी पढ़ो, वह सद्विचार. और सदाचार की प्रेरणा देने वाला साहित्य और शास्त्र हो। इस दृष्टि से सत्साहित्य एवं सद्विचार-प्रेरक ग्रन्थों व शास्त्रों के वाचनपठन-पाठन को स्वाध्यायतप कहा।
सम्यग्दर्शन और आत्म-भावों से रहित
स्वाध्याय कर्मनिर्जरा का कारण नहीं स्वाध्याय में सम्यग्दर्शन, आत्म-ध्यान और शुभ भावों की अनिवार्यता बताते हुए ‘धवला' में कहा गया है-“सम्यग्दर्शन और आत्म-भावों से रहित ज्ञान-ध्यान असंख्यात गुण श्रेणी का कारणरूप नहीं होते।' 'योगसार' में कहा गया है-"जो विद्वान् हैं, शास्त्रों का अक्षराभ्यास कर चुके हैं, किन्तु आत्म-ध्यान से रहित हैं, उनका शास्त्राध्ययन संसार का कारणरूप है।''
पिछले पृष्ठ का शेष(ग) पूयादिसु णिरवेक्खो जिण-सत्थं जो भत्ती-कम्ममल-सोहणटुं सुय लाहो सुहयरो तस्स।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा.४६२ ... (घ) स्वस्मै हितोऽध्यायः स्वाध्यायः।
-चारित्रसार १२५/५ (ङ) ज्ञानभावनालस्यत्यागः स्वाध्यायः।
-सर्वार्थसिद्धि ९/२0/४३९/७ (च) शोभनो अध्यायः स्वाध्यायः।
-आवश्यकसूत्र, अ. ४ (छ) स्वयमध्ययनं स्वाध्यायः।
(ज) स्वस्यात्मनोऽध्ययनं-स्वाध्यायः। स्वस्यस्वस्मिन् अध्ययनं स्वाध्यायः। १. (क) ण च सम्मत्तेण विरहियाणं णाण-झाणाणमसंखेज्ज-गुणसेढी-कम्मणिज्जरा।
-धवला ९/४, १, १/६/३ (ख) संसारो विदुषां शास्त्रमध्यात्मरहितानां।
-योगसार (अ.) ७/४४
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