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३८८ कर्मविज्ञान : भाग ७
अन्तःकरण इतना पारदर्शी हो जाता है कि शास्त्रों का रहस्य उसमें स्वतः प्रतिबिम्बित होने लगता है, सम्यग्ज्ञान हृदय में उतर आता है।
इसी दृष्टि से स्वाध्याय को तप कहा है, बशर्ते कि वह विधि और दृष्टिपूर्वक किया जाये। ‘वैदिक उपनिषद्' में भी स्वाध्याय को तप कहा है। 'बृहत्कल्पभाष्य' में तो यहाँ तक कह दिया है कि स्वाध्याय एक अपूर्व तप है। इसकी समानता करने वाला तप न तो अतीत में कभी हुआ है, न भविष्य में कभी होगा और न ही वर्तमान में है। अतः स्वाध्याय अपनी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अद्भुत तप है । '
स्वाध्याय के विभिन्न अर्थ और स्वरूप
स्वाध्याय का सामान्यतया अर्थ 'स्थानांग टीका' में किया गया है - सद्शास्त्रोंको मर्यादापूर्वक पढ़ना, विधिसहित अच्छे ग्रन्थों और अच्छी पुस्तकों को पढ़ना-सुनना स्वाध्याय है। ' चारित्रसार' में कहा गया है - " तत्त्वज्ञान को पढ़ना-पढ़ाना और स्मरण करना आदि स्वाध्याय है।" 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' के अनुसार - "उ -" जो सम्यग्दृष्टि साधक पूजा-प्रतिष्ठादि से निरपेक्ष होकर केवल कर्ममल के शोधन के लिए जिन शास्त्रों को भक्तिपूर्वक पढ़ता है, उसका ( वह स्वाध्याय) श्रुतलाभ और सुख देने वाला है।” 'चारित्रसार' में निश्चयदृष्टि से स्वाध्याय का अर्थ है - " अपनी आत्मा का हित करने वाला अध्ययन करना स्वाध्याय है । " 'सर्वार्थसिद्धि' में कहा गया है - " आलस्य त्यागकर ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय है।" एक आचार्य ने श्रेष्ठ अध्ययन को स्वाध्याय कहा है। इसका आशय यह है-आत्म-कल्याणकारी पठन-पाठनरूप श्रेष्ठ अध्ययन का नाम स्वाध्याय है। एक वैदिक विद्वान् ने स्वाध्याय का अर्थ किया है - " किसी अन्य की सहायता के बिना स्वयं अध्ययन करना, अध्ययन किये हुए पर मनन और निदिध्यासन करना स्वाध्याय है।” एक विद्वान् ने निश्चयदृष्टि से स्वाध्याय का अर्थ किया-अपने आप का (आत्मा का) अध्ययन करना स्वाध्याय है, अर्थात् स्वयं के जीवन की जाँच-पड़ताल करना स्वाध्याय है। स्वाध्याय शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ एक विद्वान् ने किया है-अपना अपने ही भीतर अध्ययन अर्थात् आत्म-चिन्तन-मनन करना स्वाध्याय है।
१. (क) तपो हि स्वाध्यायः ।
(ख) न वि अत्थि, न वि य होही सज्झायसमंतवो कम्मं । –बृहत्कल्पभाष्य ११६९; चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र
२. (क) सुष्ठु आ = मर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः ।
(ख) स्वाध्यायस्तत्त्वज्ञानमध्ययनमध्यापनं स्मरणं च ।
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- तैत्तिरीय आरण्यक
८९; भगवती आराधना १०७ -स्थानांग टीका ५/३/४६५ - चारित्रसार ४४ / ३
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