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________________ * स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति 82 ३८७ ॐ उठकर वह आत्मा को खोजने का प्रयत्न करेगा। मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? कहाँ और कैसे जाऊँगा? मेरे इन सब जड़-चेतन पदार्थों के साथ क्या सम्बन्ध है? इन सम्बन्धों को किस हद रखना या छोड़ना है ? इत्यादि प्रश्नों पर विचार करके वह स्वात्मोपलब्धि में बाधक भावों को छोड़ देता है। अविनाशी आत्मा के स्वभाव-स्वगुणों में ही रमण करने का प्रयत्न करता है। कृत्रिम मेरेपन से अन्तर से दूर रहेगा। पाँचवीं उपलब्धि होती है-शिवसौख्यसिद्धि की। मोक्ष-सुख की सिद्धि तभी मिल सकती है, जब व्यक्ति आत्माधीन सच्चे अव्याबाध शाश्वत सुख को समझे, उसी में आनन्द माने, विषयजनित या पदार्थनिष्ठ कृत्रिम क्षणिक सुखों को दुःख के बीज जानकर वह उनमें आसक्त नहीं होता, उन सुखों को भोगने के लिए लालायित या तत्पर नहीं होता। स्वाध्याय-साधना से आत्मार्थी सम्यग्दृष्टि व्यक्ति को ये पाँच वरदान मिलते हैं। 'योगदर्शन' में उक्त ‘स्वाध्याय से इष्टदेवता-सम्प्रयोग' का यही रहस्यार्थ है। स्वाध्याय आत्मिक-विकास के लिए व्यायाम और भोजन जिस प्रकार शरीर के विकास के लिए व्यायाम और भोजन की अत्यन्त आवश्यकता है, उसी प्रकार मन, बुद्धि, चित्त, हृदय द्वारा आत्मिक-विकास के लिए स्वाध्याय के बार-बार पारायण की-अभ्यास और भोजन को आवश्यकता है। अध्ययन से बुद्धि का व्यायाम, मानसिक कसरत एवं हार्दिक योगासन होता है तथा नये-नये विचार, नव-नव स्फुरणा एवं नूतन चिन्तन आदि के रूप में खुराक भी मिलती है। स्वाध्याय में प्रमाद मत करना ___ अतः प्राचीन ऋषि गुरुकुल से विदा होते समय छात्र को अन्तिम उपदेश यही देते थे-“स्वाध्यायान्मा प्रमदः।"-स्वाध्याय में कभी प्रमाद (आलस्य) मत करना। सत्य और धर्म के मर्म को समझने के लिए स्वाध्याय अत्यन्त आवश्यक है। शास्त्र में भी कहा गया-“सज्झायम्मि रओ सया।"-साधक सदा स्वाध्याय में रत रहे। स्वाध्याय अद्भुत तप : क्यों और कैसे ? जैसे दियासलाई में आग है, किन्तु उसे व्यक्ति घिसता-रगड़ता है, तभी उसमें से अग्नि प्रगट होती है, इसी प्रकार स्वाध्याय के लिए उपयोगी शास्त्रों या ग्रन्थों में ज्ञान है, परन्तु उनका पारायण नियमित नहीं किया जायेगा, तो उसमें से स्फुरित होने वाला ज्ञान कैसे प्रगट होगा? जैसे दीवार की बार-बार घुटाई करने से वह चिकनी हो जाती है, उसके सामने जो भी वस्तु आयेगी, उसका प्रतिविम्व उसमें झलकने ल ाता है, इसी प्रकार शास्त्रों की बार-बार स्वाध्याय द्वारा घुटाई करने से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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