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________________ ४ ३८६ कर्मविज्ञान : भाग ७ ही तो पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन नरक बन जाता है। धार्मिक अन्ध-विश्वास तो और भी भयंकर अज्ञान के फल हैं। मनुष्य- मनुष्य में परस्पर द्वेष, घृणा, पक्षपात, कलह, रक्तपात, कदाग्रह आदि सब अज्ञानरूपी राक्षस के वरदान हैं। संक्षेप में कहें तो अज्ञानरूपी राक्षस का खप्पर कौन-से पाप से नहीं भरता? सभी पाप उसके खप्पर में समा जाते हैं। व्यक्तिगत जीवन में अज्ञान के कारण ही दुःख, शोक, भय, मोह, द्वेष, लोभ छल, अहंकार आदि पैदा होते हैं। अज्ञान जन्म-जन्मान्तर तक व्यक्ति को रुलाता है, दुःख देता है, संतप्त कर देता है, नरक के जीव अज्ञान के कारण ही पूर्वकृत वैर-भाव का स्मरण करके परस्पर लड़-भिड़कर दुःख पाते हैं। स्वाध्याय करना ही श्रुतदेवी की उपासना है। वह भगवद्वाणी है, अज्ञानतिमिरहरणी है, ऐसा सोचकर यथासमय नियमित शास्त्रों तथा अध्यात्म ग्रन्थों का स्वाध्याय करने से जब मनुष्य को सम्यग्दर्शनयुक्त सम्यग्ज्ञान प्राप्त हो जाता है, बार-बार पारायण करने से उसके अन्तःकरण में वह आत्म-ज्ञान ठेस जाता है, उसकी प्रज्ञा उक्त आत्म-ज्ञान में स्थिर हो जाती है, तब उसके जीवन में मैत्री, सन्तोष, त्याग, वैराग्य, संवेग, समता, आत्मीयता, आनन्द और तृप्ति की उपलब्धि सहज ही हो जाती है। सतत स्वाध्याय से जब व्यक्ति की दृष्टि और ज्ञान सम्यक् हो जाते हैं, तब सबसे पहले उसे बोधि की उपलब्धि होती है । बोधि का अर्थ है - आत्म-बुद्धि, सभी प्राणियों को आत्मौपम्यदृष्टि से देखने की बुद्धि । ऐसी स्थिति में किसी भी प्राणी के प्रति राग, मोह, आसक्ति या द्वेष, घृणा, द्रोह, ईर्ष्या आदि भाव उत्पन्न नहीं हो पाते। आत्म-बोध पाने पर व्यक्ति को सही ढंग से सोचने की कुंजी हाथ लग जाती है । अहर्निश जाग्रत रहता है। सुख-दुःख हानि-लाभ, जीवन-मरण, मानापमान में विषमता या उद्विग्नता नहीं लाता । दूसरा वरदान उसे मिलता है - समाधि का । समाधि कहते हैं-आत्मलीनता को । उसे आत्म-तृप्ति और आत्म सन्तुष्टि हो जाती है । भौतिक प्रगति की अपेक्षा वह आध्यात्मिक प्रगति को महत्त्व देता है। भौतिक प्रगति के लिए वह आत्म-समाधि भंग नहीं करता। तीसरी उपलब्धि होती हैपरिणामशुद्धि की। ‘परिणामे बन्ध:' इस सूत्र के अनुसार आत्म-ज्ञान से सम्पृक्त साधक यह बात हृदयंगम कर लेता है कि शुभ-अशुभ परिणामों से कर्मबन्ध होता है, अतः वह यथाशक्ति शुद्ध परिणति - अबन्धक परिणाम रखने की सावधानी रखता है। चौथी उपलब्धि होती है - स्वात्मोपलब्धि की । मेरा मकान, मेरा घर, मेरा पुत्र, मेरा शरीर, मेरा सम्प्रदाय, मेरा गोत्र, मेरा देश, मेरे भक्त इत्यादि सब पर-भावों में उसका ममत्व - मेरापन स्वात्मोपलब्धि में बाधक है। इस सबसे ऊपर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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