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________________ ॐ स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति ॐ ३८५ * स्वाध्याय के लौकिक और लोकोत्तर फल 'धवला' में स्वाध्याय का लोकोत्तर एवं लौकिक फल बताते हुए कहा गया हैजिन्होंने उत्तम प्रकार से (स्वाध्याय करके) सिद्धान्तों का अभ्यास कर लिया है, उनका ज्ञान सूर्य किरणों के समान निर्मल होता है। प्रवचन के अभ्यास से मेरुसम निष्कम्प, अष्टमलरहित एवं तीन मूढ़ताओं से रहित सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। स्वाध्याय के अभ्यास से देवों, मनुष्यों और विद्याधरों के सुख प्राप्त होते हैं तथा आठ कर्मों के उन्मूलित होने पर सिद्ध-सुख भी प्राप्त होते हैं। जिनागम जीवों के मोहरूपी ईंधन के लिए अग्नि के समान, अज्ञानान्धकार के विनाश के लिए सूर्य के समान और द्रव्य-भावकर्म के मार्जन (प्रक्षालन) के लिए समुद्र के समान हैं। अतः अज्ञानतिमिरविनाशक, भव्यजीवों के हृदय को विकसित करने वाले मोक्षपथ के प्रकाशक सिद्धान्तों का स्वाध्याय करो (सेवन करो)।' नियमित स्वाध्याय से श्रुतदेवता द्वारा पाँच वरदानों की उपलब्धि ___ 'सामायिक पाठ' में कहा गया है-स्वाध्याय करने से पाँच महती उपलब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। नियमित रूप से स्वाध्याय करते रहने से व्यक्ति को श्रुतदेवता (सम्यग्ज्ञान के देवता) के द्वारा पाँच वरदान प्राप्त होते हैं, वे इस प्रकार हैं-बोधि, समाधि, परिणामशुद्धि, स्वात्मोपलब्धि और शिवसौख्यसिद्धि।२।। यह पहले कहा जा चुका है कि स्वाध्याय से अज्ञानान्धकार दूर होकर सम्यग्ज्ञान का प्रकाश होता है। मनुष्य आज अज्ञान, अन्ध-विश्वास, मिथ्या मान्यताओं के दुराग्रह में पड़कर संकीर्णता, तुच्छ स्वार्थपरता तथा पतन की ओर ले जाने वाले दुष्कर्मों, दुर्व्यसनों और दुराचारों से घिरा हुआ है। अज्ञान के कारण १. भाविय-सिद्धताणं दिणयर-करः णिम्मलं हवइ णाणं। सिसिर:यर-कर सिच्छं हवइ चरित्तं सवस चित्तं॥४७॥ मेरुव्व णिकंपं णट्ठमलं तिमूढ-उम्मुक्कं । सम्मइंसणमणुवयं समुपज्जइ॥४८॥ जियमोहिंधणजलणो, अण्णाणतमंधयार-दिणयरओ। कम्ममलकलुस-पुसओ, जिणवयण मिवोवही सुहओ॥४९॥ अण्णाणतिमिर-हरणं सुभविय-हिययारविंद-जोहणयं। उज्जोइय-सयल-बद्धं सिद्धत-दिवायरं भजह ॥५०॥ तत्तो चेव सुहाई सयलाइ देव-मणुय-खयराणं। उम्मूलियट्ठकम्मं कुड सिद्ध-सुहं पि पवयणदो ॥५१॥ -धवला १/१, १, १/५९/४७-५१ २. बोधिः समाधिः परिणामशुद्धिः स्वात्मोपलब्धिः शिवसौख्यसिद्धिः। चिन्तामणिं चिन्तितवस्तुदाने, त्वौ वन्द्यमानस्य ममाऽस्तु देवि ! -सामायिक पाठ, श्लो. ११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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