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________________ ॐ ३८४ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 है।" और भी कहा है-“पाँचों इन्द्रियों से सुसंवृत त्रिगुप्तियों से गुप्त जो साधु स्वाध्याय करता है, वह एकाग्रचित्त होकर विनय से युक्त होता है। जिसमें अतिशय रस का प्रसार है, ऐसे श्रुत (शास्त्र) में वह जैसे-जैसे अवगाहन करता है, वैसे-वैसे अतिशय नवीन धर्मश्रद्धा से संयुक्त होता हुआ परम आनन्द का अनुभव करता है।" स्वाध्याय से प्राप्त आत्म-विशुद्धि से युक्त साधक निष्कम्प एवं हेयोपादेय में विलक्षण बुद्धि होकर यावज्जीवन रत्नत्रयमार्ग में विहरण करता है।" 'प्रवचनसार' के अनुसार-“जैनशास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जानने वाले (स्वाध्याय-साधक) के नियमतः मोह-समूह क्षय हो जाता है। आगमज्ञान से हीन श्रमण आत्मा और पर को नहीं जान पाता, पदार्थों को नहीं जानता हुआ भिक्षु कर्मों का क्षय कैसे कर सकता है ? क्योंकि साधु आगमचक्षु है, सर्वप्राणी इन्द्रियचक्षु है, देव अवधिचक्षु वाले हैं और सिद्ध-परमात्मा सर्वतः चक्षु वाले हैं। आगम से यदि पदार्थों का श्रद्धान न हो तो उसकी सिद्धि (मुक्ति) नहीं होती। क्योंकि श्रमण आगम द्वारा देखकर गुण-पर्यायों सहित द्रव्यों को जानते हैं।” (घ) १. (क) कर्मणामसंख्यातगुणश्रेणि-निर्जरा केणां प्रत्यक्षेति चेन्न, अवधि-मनःपर्यायज्ञानिनां सूत्रमधीयानानां तत्प्रत्यक्षतायाः समुपलम्भात्। -धवला १/१, १, १/५६/३ (ख) किमर्थं सर्वकालं व्याख्यायते? श्रोतुर्व्याख्यातुश्च असंख्यातगुणश्रेण्या कर्मनिर्जराहेतुत्वात्। -वही ९/५, ५, ५०/२८१/३ (ग) छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहिं अण्णाणियस्स जा सोही। . तत्तो बहुगुण-दरिया होज्ज हु जिमिदस्स णाणिस्स॥ -भगवती आराधना, गा. १०९ सज्झायं कुव्वंतो पंचिंदिय-संवुडो तिगुत्तो य। हवदि य एगग्गमणो विणएण समाहिदो भिक्खू॥१०४॥ जह-जह सुदमोगाहदि अदिसय-रस-पसरमसुद पुव्वं तु। तह-तह पल्हादिज्जदि तव-तव-संवेग-सड्ढाए॥१०५॥ आयापाय-विदण्हू दंसण-णाण-तव-संजमे ठिच्चा। विहरदि विसुज्झमाणो जावज्जीवं तु णिक्कंपो॥१०६॥ -वही, गा. १0४-१०६ जिणसत्था दो अढे पच्चखादीहिं बुज्झदो णियमा। खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं ॥८६॥ . आगमहीणो समणो णेव अप्पाणं परं वियाणादि। अविजाणतो अढे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू ॥२३३॥ आगमचक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्वभू दाणि। देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू॥२३४॥ णहि आगमेण सिज्झदि सद्दहण जदि विणत्थि अत्थेसु॥२३७॥ -प्रवचनसार (मू.), गा. ८६, २३३-२३४, २३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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