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ॐ स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति ॐ ३८३ ॐ
'बौद्ध वाङ्मय' में भी स्वाध्याय से लाभ बताते हुए कहा गया है-“जो व्यक्ति प्रतिदिन स्वाध्याय करता है, उसके ज्ञान की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। उसका ज्ञान शतशाखी होकर निरन्तर बढ़ता जाता है।''
स्वाध्याय का विशिष्ट फल स्वाध्याय का विशिष्ट फल बताते हुए ‘योगदर्शन' में कहा है-स्वाध्याय से इष्ट (अभिलषित) देवों (दिव्य आत्माओं) का सम्प्रयोग (सम्बन्ध या साक्षात्कार) होता है। आशय यह है कि श्रद्धापूर्वक नियमित रूप से स्वाध्याय करते रहने से अनेक बार स्वाध्यायी के मस्तिष्क में आकस्मिक रूप से अभीष्ट अर्थ स्फुरित होते जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कोई दिव्य आत्मा आकर इस अर्थ को बताया गया है। ऐसे स्वाध्यायशील योगी के मस्तिष्क अथवा भावनाओं में अकस्मात् कोई सम्यग्दृष्टि देवी-देव का अथवा दिव्य महान् साधक का या ज्ञानी आत्मा का संयोग मिल जाता है, जिनसे स्वाध्यायी को अकस्मात् नये-नये अर्थों की स्फुरणा होती रहती है। जैनसिद्धान्त की दृष्टि से उसे पदानुसारी लब्धि आदि लब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं, जिनसे वह सिद्धान्तानुसार अनेक शंकाओं और प्रश्नों का शीघ्र समाधान कर पाता है। इसी कारण 'शास्त्र को तृतीय लोचन' तथा 'सर्वजगत् का नेत्र' कहा गया है।
स्वाध्याय के उत्तम फल स्वाध्याय का फल बताते हुए ‘धवला' में एक प्रश्न उठाया गया है कि स्वाध्याय से कर्मों की असंख्यातगुण श्रेणीरूप में निर्जरा होती है, यह बात किसको प्रत्यक्ष है? इसका समाधान यह है कि ऐसी शंका ठीक है। क्योंकि शास्त्र का अध्ययन करने वालों की असंख्यातगुणित श्रेणीरूप से निर्जरा होती है, यह बात अवधिज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानियों को प्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध होती है। फिर एक प्रश्न और उठाया गया है-“शास्त्रों की व्याख्या सर्वकाल में किसलिए की जाती है ? उत्तर है क्योंकि वह व्याख्याता और श्रोता के असंख्यातगुणी श्रेणीरूप से होने वाली कर्मनिर्जरा का कारण है।"
'भगवती आराधना' में कहा गया है-“दो, तीन, चार, पाँच अथवा पक्षोपवास तथा मासोपवास करने वाले सम्यग्ज्ञानरहित जीव की अपेक्षा भोजन करने वाला, किन्तु स्वाध्याय में तत्पर सम्यग्दृष्टि जीव परिणामों की ज्यादा विशुद्धि कर लेता
१. धम्मपद २. देखें-पातंजल योगदर्शन के पाद २, ४४वें सूत्र-'स्वाध्यायादिष्ट देवता-सम्प्रयोगः' इस सूत्र .. की व्याख्या।
-पातंजल योगदर्शन विद्योदयर्भाष्य सहित, पृ. १५० . ३. शास्त्रं तृतीयलोचनम्। सर्वस्य लोचनं शास्त्रम्।
-नीति वाक्यामृत
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