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ॐ ३८२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ *
दुराग्रह को छुड़ाने के लिए, और (५) यथार्थ-भावज्ञानार्थ = सूत्रों के अध्ययन (शिक्षण) से यथार्थ भावों (वस्तुओं के यथार्थस्वरूप) को जानने के लिए। इन पाँच कारणों से सूत्रों (शास्त्रों) का अध्ययन (शिक्षण) करना चाहिए।' शास्त्र-अध्यापन के रूप में स्वाध्याय करने से पाँच महालाभ
इसी प्रकार वहाँ बताया गया है-पाँच कारणों से सूत्र (शास्त्र) का अध्यापन (वाचना देने) के रूप में स्वाध्याय करना चाहिए। यथा-(१) संग्रह के लिए = अध्यात्म से श्रुतज्ञान का संग्रह करने अथवा शिष्यों को शास्त्र का सम्यकप से ग्रहण (ज्ञान) कराने के लिए, (२) उपग्रह के लिए = शिष्यों का श्रुतज्ञान देकर उपकृत करने के लिए, ताकि वह श्रद्धापूर्वक श्रुतसेवा कर सके। (३) निर्जरा के लिए-कर्मों-ज्ञानदर्शनादि प्रतिबन्धक कर्मों के क्षय के लिए, (४) शास्त्रों का अध्ययन कराने (वाचना देने) से मेरा श्रुतज्ञान परिवर्द्धित = पुष्ट होगा, विशेष रूप से स्थिर होगा, इसके लिए, और (५) श्रुत (शास्त्र) का अध्ययन-अध्यापन की परम्परा चालू रखने से (निरन्तर स्वाध्याय करने से) सूत्र विच्छिन्न नहीं होगा; अर्थात् सूत्र परम्परा को अविच्छिन्न रखने के लिए। इस प्रकार शास्त्रों के तथा अध्यात्म-तत्त्वज्ञान के ग्रन्थों के स्वाध्याय से, पठन-पाठन से ज्ञान-दर्शनचारित्र-संयम, विनय-वैयावृत्य आदि अनेक गुणों की वृद्धि होती है। मन, बुद्धि, चित्त, हृदय अन्य पर-भावों या विभावों में न लगकर स्वभाव में आत्म-भाव मेंआत्मा के ज्ञानादि गुणों में स्थिर रहता है। स्वाध्याय से सात आध्यात्मिक लाभ
'तत्त्वार्थ राजवार्तिक' में स्वाध्याय से अनेक आध्यात्मिक लाभ बताए हैं(१) स्वाध्याय से बुद्धि परिष्कृत एवं निर्मल होती है, (२) प्रशस्त अध्यवसाय चित्त में प्रादुर्भूत होते हैं, (३) शासन (धर्म-संघ) की आध्यात्मिक पतन से सुरक्षा होती है, (४) अनेक संशयों का निवारण होता है, (५) परवादियों की शंकाओं के निराकरण की शक्ति प्राप्त होती है, (६) तप, त्याग, संयम की अभिवृद्धि होती है, (७) व्रत, नियम, संयम में लगने वाले अतिचारों (दोषों) की शुद्धि होती है।
१. पंचहिं ठाणेहिं सुत्तं सिक्खेज्जा, तं.-णाणट्ठयाए, दंपणट्टयाए, चरित्तट्टयाए, वुग्गह-विमोयणट्टयाए, अहत्थे वा भावे जाणिसामीति कट्ट।
-स्थानांग, स्था. ५. उ. ३, सू. २२४ २. पंचहिं ठाणेहिं सुत्तं वाएज्जा, तं.-संगहट्टयाए, उवग्गहठ्ठयाए, णिज्जरठ्ठयाए, सुत्ते वा मे पज्जवयाते भविस्सति, सुत्तस्स वा अवोच्छित्ति णयट्ठयाए।
-वही, ठा. ५, उ. ३, सू. २२३ ३. तत्त्वार्थ राजवार्तिक
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