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________________ ॐ स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति 8 ३८१ * एकाग्रतापूर्वक आत्म-चिन्तनकर्ता ध्याता ध्येयरूप हो जाता है। ध्यान और स्वाध्याय दोनों से चित्त एकाग्र होता है। ध्यान में अन्य किसी वस्तु का अवलम्बन न लेकर ध्याता जब स्वयं को ही अपने चिन्तन का विषय बनाकर उसमें एकाग्र हो जाता है, तब वह उत्कृष्ट ध्यान कहलाता है; जिसे 'योगदर्शन' में निर्बीज समाधि कहा है।' स्वाध्याय से श्रुतसमाधि की उपलब्धि 'दशवैकालिकसूत्र' में चार प्रकार की समाधियों का वर्णन है। समाधि का स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार है-“जिसके प्राप्त होने पर व्याधि, आधि और उपाधि न रहे, वह समाधि (सम्यक् मनःसमाधान) है।" समाधि के चार प्रकार यों हैं(१) विनयसमाधि, (२) श्रुतसमाधि, (३) तपःसमाधि, और (४) आचारसमाधि। आशय यह है कि विनय, श्रुत, तप और आचार के जीवन में परिनिष्ठित = परिपक्व हो जाने पर साधक चारों में समाधि प्राप्त कर सकता है, अर्थात् शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वस्थता प्राप्त कर लेता है। यहाँ श्रुतसमाधि का प्रसंग है। वह शास्त्रों के बार-बार स्वाध्याय से ही प्राप्त हो सकती है। श्रुतसमाधि कैसे प्राप्त हो सकती है ? इस सम्बन्ध में वहाँ कहा गया है"श्रुतसमाधि चार प्रकार से होती है। यथा-(१) श्रुत (शास्त्र) पर मेरा अधिकार हो जाये, शास्त्र मेरे अधिगत हो जायें, इसके लिए सम्यक् अध्ययन करना चाहिए। (२) श्रुत का अध्ययन करने से मेरा मन एकाग्र-एक विषय पर स्थिर हो सकेगा। (३) आत्मा को आत्म-भावों में स्थापित कर सकूँ, इसके लिए भी शास्त्र स्वाध्याय करना चाहिए, और (४) मैं अपने आप में स्थित (स्थितात्मा) होकर दूसरों को : आत्मा में स्थित कर सकूँगा, इसके लिए भी मुझे (शास्त्रों का) अध्ययन करना चाहिए। यही स्वाध्याय के द्वारा आन्तरिक तप का रूप है। स्वाध्याय से अन्य अनेक लाभ ___ 'स्थानांगसूत्र' में प्रकारान्तर से शास्त्रों के अध्ययन (शिक्षण) और अध्यापन (वाचना देने) के रूप में स्वाध्याय क्यों करना चाहिए? इससे लाभ से सम्बन्धित ५-५ कारण बताये गये हैं-यथा-(१) ज्ञानार्थ = नये-नये तत्त्वों के परिज्ञान के लिए, (२) दर्शनार्थ = सम्यग्दर्शन की उत्तरोत्तर पुष्टि के लिए, (३) चारित्रार्थ = चारित्र की निर्मलता-निर्दोषता के लिए, (४) व्युद्ग्रह-विमोचनार्थ = दूसरों के १. 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ५८२ २. चउब्विहा खलु सुअ समाही भवइ तं.-सुअं मे भविस्सइत्ति अज्झाइ अव्वं भवइ। एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झा. । अप्पाणं ठावइस्सामि त्ति अज्झा..। ठिओ परं ठावइस्सामि अज्झाइयव्यं भवइ। नाणमेगग्गचित्तो अ, ठिओ अ ठावइ परं। सुआणि य अहिज्जित्ता, रओ सुअ-समाहिए। -दशवै. ९/३/४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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