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________________ * ३८० * कर्मविज्ञान : भाग ७ * स्वाध्याय : अज्ञान से आवृत आत्म-ज्ञान को अनावृत करने का माध्यम 'उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा गया है-"स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है।'' ज्ञानावरणीय कर्म की निर्जरा, क्षय या क्षयोपशम होने से आत्मा में निर्मल ज्ञान की ज्योति जगमगा उठती है, जिसके प्रकाश में आत्मार्थी एवं मुमुक्षु जीव अपने दुःखों-संकटों आदि का कारण तथा उन्हें निवारण करने का उपाय जानकर उन दुःखकारक कर्मों को नष्ट कर पाता है। अतः स्वाध्याय अज्ञानान्धकार से आवृत एवं सुषुप्त आत्मा के अनन्त ज्ञान को अनावृत एवं जाग्रत करने का सर्वोत्तम सरलतम माध्यम है। स्वाध्याय से क्लिष्टचित्तवृत्ति-निरोधक योग की प्राप्ति स्वाध्याय से चित्त एकाग्र और शुद्ध हो जाता है और शुद्ध चित्त में ही शुद्ध आत्मा (परमात्मा) का निवास हो सकता है। इसी तथ्य को उजागर करते हुए 'योगदर्शन' के भाष्यकार महर्षि व्यास कहते हैं-“स्वाध्याय से योग की प्राप्ति होती है और योग से स्वाध्याय की साधना होती है। जो साधक स्वाध्यायमूलक योग की सम्यक् साधना करता है, उसके समक्ष परमात्मा प्रकट हो जाता है। अर्थात् वह स्वयं परमात्मपद को प्राप्त कर लेता है।" स्वाध्याय और ध्यान, दोनों परस्पराश्रित हैं स्वाध्याय के साथ ध्यान का घनिष्ट सम्बन्ध है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में स्वाध्याय के पश्चात् ध्यान करने का जो विधान है, उसका आशय यही है कि प्रथम प्रहर में सूत्र का स्वाध्याय किया जाये और द्वितीय प्रहर में उस सूत्र के अर्थों और आशयों पर चिन्तन-मनन किया जाये। इसीलिए प्रथम प्रहर को सूत्र-पोरसी और द्वितीय प्रहर को अर्थ-पोरसी भी कहा जाता है। स्वाध्याय और ध्यान का परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध दूसरे दृष्टिकोण से भी देखें तो स्वाध्याय और ध्यान का परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है। स्वाध्याय में अपनी आत्मा का चिन्तन प्रमुख होता है, जबकि ध्यान में पिछले पृष्ठ का शेष(ख) बहुभवे संचियं (कम्म) खलु सज्झाएण खणे खवइ। -चन्द्रप्रज्ञप्ति ९१ (ग) सज्झायं च तओ कुज्जा सव्व-भाव-विभावणं। -उत्तराध्ययन २६/३७ (घ) अज्ञानमूलं हि सर्वं दुखमविवेकिनः। १. सज्झाएणं नाणावरणिज्ज कम्मं खवेइ। -उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. १८ २. योगदर्शन व्यासभाष्य ९/२८ ३. पढमं पोरिसि सज्झायं, बीयं झाणं झियायइ। -उत्तरा. २६/१२, १८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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