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________________ स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति ४ ३९१ इसी दृष्टि से 'वृहत्कल्पभाष्य' में कहा गया है - " शास्त्र का बार-बार अध्ययन कर लेने पर भी यदि उससे अर्थ की अनुभूति नहीं हुई तो वह अध्ययन (स्वाध्याय) वैसा ही रहता है, जैसे जन्मान्ध के समक्ष चन्द्रमा प्रकाशमान होते हुए भी अप्रत्यक्ष ही रहता है।' , १ स्वाध्याय के पाँच प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, इस चतुर्विध मोक्षमार्ग की साधना-आराधना के विषय में प्राचीनकाल में जो भी शास्त्र या ग्रन्थ थे या उनमें जो सैद्धान्तिक तत्त्वज्ञान था, उसे कण्ठस्थ करने की परम्परा थी । महावीर निर्वाण के ९८० या ९९३वें वर्ष में जैनागम लिपिबद्ध हुए । कण्ठस्थ ज्ञान को सुरक्षित और स्थिर रखने के लिए पुनः-पुनः वाचना, पृच्छा, परिवर्तना (आवृत्ति), अनुप्रेक्षा ( चिन्तन-मनन) और धर्मकथा आदि किये जाते थे । प्राचीन विशाल चतुर्दशपूर्वों का ज्ञान आज लुप्त हो गया, उसका मुख्य कारण है, प्रायः पंचविध स्वाध्याय का अभाव। यही कारण है कि ज्ञान को सुस्थिर, सुरक्षित एवं सर्वजनोपयोगी बनाने के लिए आगमों में स्वाध्याय के ५ प्रकार बताये गये हैं-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा । २ वाचना-वाचना का अर्थ है पढ़ना । परन्तु इसमें अनेक अर्थ गर्भित हैं। सद्ग्रन्थों, धार्मिक-आध्यात्मिक पुस्तकों को तथा सच्छास्त्रों को स्वयं पढ़ना, योग्य साधक-साधिकाओं को पढ़ाना (शास्त्रों की वाचना देना ), जो नहीं पढ़ सकते हों उन्हें सुनाना अथवा स्वयं द्वारा सुनना; ये सब अर्थ वाचना के अन्तर्गत आ जाते हैं। यदि कण्ठस्थ कर सकें तो सिद्धान्तों के अलग-अलग बने हुए थोकड़ों तथा अत्यावश्यक शास्त्र-गाथाओं को कण्ठस्थ करना चाहिए। जी. एफ. एडीसन ने कहा है - मस्तिष्क को अध्ययन - वाचन की उतनी ही जरूरत है, जितनी शरीर को व्यायाम की। 'बेकन' का मानना है कि " रीडिंग मेक्स ए फुल मैन, स्पीकिंग ए परफेक्ट एण्ड राइटिंग एन एग्जैक्ट मैन ।” अर्थात् " अध्ययन (वाचन) मनुष्य को पूर्ण बनाता है, भाषण परिपूर्ण और लेखन प्रामाणिक बनाता है।” अध्ययन द्वारा अधिकांश व्यक्ति महान् बने हैं। एक विद्वान् ने पढ़ने या वाचन करने का क्रम बताया है- “ पहले वह पढ़ो, जो आवश्यक हो; फिर वह पढ़ो, जो उपयोगी हो; तत्पश्चात् वह पढ़ो, जिससे धार्मिक, आध्यात्मिक एवं सैद्धान्तिक ज्ञान बढ़े। " रश्किन की 'अंटु दिस लास्ट' पुस्तक पढ़ने से महात्मा गांधी जी के विचारों में भारी १. जो वि पगासो बहुलो, पच्चक्खओ न उवलद्धो । जच्चधस्स व चंदो फुडो वि संतो तहा स खलु ॥ - बृह. भा. १२२४ २. सज्झाए पंचविहे पण्णत्ते, तं. - वायणा, पडिपुच्छणा, परियट्ठणा, अणुप्पेहा, धम्मकहा। - भगवती २५/७; स्थानांग में भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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