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________________ * ३६६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 होता है-जो ज्ञानादि रत्नत्रय में तथा संयम में स्वयं स्थिर रहकर, श्रमण-श्रमणियों को स्थिर करते हैं। वे अनुभवी और गीतार्थ होते हैं। इस प्रकार के स्थविरों की वृद्धावस्था में तन-मन की दुर्बलता के कारण वैयावृत्य की आवश्यकता होती है। उनकी सब प्रकार से वैयावृत्य करना आत्म-वैयावृत्य का प्रकार है। काया से वैयावृत्य द्वारा संयम में स्थिर करे, वाणी से आत्म-शान्ति बढ़ाये और मन से शुभ भावना द्वारा उनका मनोबल प्रबल बनाए। (४) तपस्वी वैयावृत्य-उत्कट तप करने वाले या एकान्तर, उपधान आदि तप करने वाले तपस्वी कहलाते हैं। बाह्याभ्यन्तरतप में से किसी विशिष्ट तप की साधना करने वाला भी तपस्वी है। ऐसे जो तपस्वी तप के कारण तन, मन, वचन, इन्द्रियों एवं अंगोपांगों से शिथिल और श्रान्त हो गए (थक गए) हों, उनकी विशेष रूप से आहार, पानी, पथ्य आदि द्वारा, प्रतिलेखन-परिष्ठापन-गात्रसम्बाधन आदि द्वारा सेवा करना तपस्वी वैयावृत्य है। स्वाध्याय आदि द्वारा उनके तप-संयम को उज्ज्वल बनाने का प्रयत्न करना। उनकी आत्म-ज्योति तथा मनःशान्ति को प्रकाशित करना, उनका उत्साह बढ़ाना। (५) ग्लान वैयावृत्य-ग्लान कहते हैं-रुग्ण तथा अशक्त को। असातावेदनीय कर्मवशात् कभी कोई साधक ग्लान, दुःसाध्य रोगाक्रान्त, किसी ,पीड़ा या चोट से क्लान्त अथवा मानसिक वेदना से पीड़ित या शरीर से बिलकुल अशक्त हो गया हो अथवा अरति परीषह या किसी उपसर्ग के कारण मनोदुःख होने से धर्म-पालन में निरुत्साह या निराश हो गया हो, ऐसे ग्लान साधक की सेवा करना महानिर्जरा का कारण है। ग्लान या रुग्ण साधु को औषध, पथ्य आदि लाकर देने से, उसकी दैहिक क्रियाओं में सहायता देने से, संयम में उत्साह बढ़ाने हेतु उसके साथ मधुर संभाषण करने तथा शास्त्रीय प्रमाण एवं युक्ति से परीषह-उपसर्ग-सहिष्णुओं की जीवनगाथा सुनाने से उनके चित्त में शान्ति तथा मनस्तुष्टि होती है, यही ग्लान वैयावृत्य है। 'प्रवचनसारोद्धार' आदि ग्रन्थों में ग्लान वैयावृत्यकर्ता अर्थात् ग्लान प्रतिचारी १२ प्रकार के कहे गए हैं।' (६) शैक्ष वैयावृत्य-शैक्ष कहते हैं-नवदीक्षित को। नवदीक्षित को ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, संयम, नियम आदि के सम्यक् आचरण करने का अभ्यास नहीं होता। कई बार ज्येष्ठ साधुओं द्वारा उसके संवेदनशील मन को क्षुब्ध कर दिया जाता है अथवा कठोर कष्टकारक लोच, विहार, भिक्षा आदि से घबराकर उसका मन संयम में शिथिल हो जाता है। ऐसे समय में संयम में आगत कष्ट अत्यन्त नगण्य लगें, संयम में मन लग जाए, वह गौरवपूर्ण लगे, ऐसा बोध एवं वातावरण जगाना १. देखें-प्रवचनसारोद्धार, द्वार ७१, गा. ६२९ में ग्लान प्रतिचारी के १२ प्रकारों का वर्णन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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