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________________ ® निर्जरा, मोक्ष या पुण्य-प्रकर्ष के उपाय : विनय और वैयावृत्यतप ® ३६५ * विरक्त रहता है, उसके उत्कृष्ट वैयावृत्यतप होता है।'' इसका फलितार्थ यह है कि जो रत्नत्रयाराधक मोक्षसाधकों की अम्लानभाव से, परानुग्रहभावविरत होकर वैयावृत्य करता है, उस समय भी यही शुद्ध परिणाम रखे कि मैं अपनी आत्मा की ही वैयावृत्य कर रहा हूँ।" तदुभय वैयावृत्य में दोनों ही प्रकार की वैयावृत्य का समावेश हो जाता है। इस दृष्टि से वैयावृत्य अन्तरंग तप सिद्ध हो जाता है। उत्कृष्ट पात्रों की अपेक्षा दशविध वैयावृत्य 'स्थानांगसूत्र' में वैयावृत्य के उत्कृष्ट पात्रों की अपेक्षा से दस प्रकार बताये गए हैं-(१) आचार्य वैयावृत्य, (२) उपाध्याय वैयावृत्य, (३) स्थविर वैयावृत्य, (४) तपस्वी वैयावृत्य, (५) ग्लान वैयावृत्य, (६) शैक्ष (नवदीक्षित) वैयावृत्य, (७) कुल वैयावृत्य, (८) गण वैयावृत्य, (९) संघ वैयावृत्य, और (१०) साधर्मिक वैयावृत्य। (१) आचार्य वैयावृत्य-आचार्य तीर्थंकरों और गणधरों के प्रतिनिधि होते हैं। वे धर्म-संघ के शास्ता होते हैं तथा पंचविधि आचार का स्वयं पालन करते हैं और चतुर्विध संघ को प्रेरित-प्रवृत्त करते हैं। वे संघ के कुशल व्यवस्थापक, संघ-नेता एवं मार्गदर्शक होते हैं। आचार्य की वैयावृत्य उनके तन, मन को शान्ति पहुँचाने, उनके द्वारा संघ-संचालन के कार्य में विविधि उपायों और योजनाओं द्वारा योगदान देने से होती है। उनके द्वारा दी गई आज्ञाओं को बहुमानपूर्वक शिरोधार्य करके पालन करना भी आचार्य वैयावृत्य है। (२) उपाध्याय वैयावृत्य-उपाध्याय स्व-पर-सिद्धान्त में प्रवीण होते हैं, जिनागमों के प्रति उनकी श्रद्धा दृढ़ होती है। वे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की वृद्धि करते-कराते हैं। वे शास्त्रज्ञान देते हैं, सिद्धान्तों का रहस्य बताते हैं। उपाध्याय जी की वैयावृत्य उनके योग्य आहार, वस्त्र, पाट, शय्या, पेय पदार्थ आदि लाकर देने से उनकी शारीरिक थकान, बौद्धिक सुस्ती तथा रोगादि निवारण करने तथा उनके स्वास्थ्य को टिकाये रखने से होती है। ___ (३) स्थविर वैयावृत्य-स्थविर तीन प्रकार के होते हैं-वयःस्थविर, श्रुत (ज्ञान) स्थविर, और दीक्षास्थविर । स्थविर का अर्थ होता है-वृद्ध। परन्तु उसका फलितार्थ १. (क) तिविहे वेयावच्चे प. तं.-आयवेयावच्चे, परवेयावच्चे तदुभयवेयावच्चे।-स्थानांग ३/३ (ख) जो वावरइ सरूवे सम-दम-भावम्मि सुदद उवउत्तो। लोय-ववहार-विरदो, वेयावच्चं परं तस्स॥ -कार्ति. अ. ४६० २. दसविहे वेयावच्चे प. तं.-आयरियवेयावच्चे, उवज्झायवे., भेदवे., तवस्सिवे., गिलाणवे., सेहवे., कुलवे., गणवे., संघवे., साहम्मियवेयावच्चे। -स्थानांग, स्था. १० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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