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________________ ॐ निर्जरा, मोक्ष या पुण्य-प्रकर्ष के उपाय : विनय और वैयावृत्यतप * ३६७ * चाहिए। नवदीक्षित साधक को वैयावृत्य के द्वारा उत्तम संयम सिखाना चाहिए। नवदीक्षित मेघ मुनि की तरह पूर्व दीक्षित साधुओं द्वारा उपेक्षाभाव, निन्दा बिलकुल नहीं होना चाहिए। (७-८-९) कुल-गण-संघ वैयावृत्य-एक गुरु के शिष्य-शिष्या परिवार को कुल, एक-दो या अधिक कुल के शिष्यवर्ग के समुदाय को गण और कई गणों के समूह को संघ कहते हैं। कहा भी है-“बसे गुरु-कुले णिच्चं।"-गुरुजनों के कुल (समुदाय) नित्य निवास करे। उससे उदारता, विनय, सेवा, वात्सल्य, सहयोगभावना, भक्ति आदि गुण विकसित होते हैं। इन तीनों में निवास मूलगुणों और उत्तरगुणों की सुरक्षा का भी कारण है। कुल, गण और संघ की मर्यादाओं का पालन करना, परस्पर वात्सल्यभाव रखना, शास्त्रादि का अध्ययन करना-कराना और परस्पर यथोवित सेवा करना कुल-गण-संघ वैयावृत्य है। इन तीनों की भर्त्सना, निन्दा न करना-कराना तथा इनमें परस्पर ऐक्य को साधना भी इन तीनों की वैयावृत्य है। वैयक्तिकता को प्रधानता न देकर समूहभावना को प्रधानता देना भी इनका वैयावृत्य है। साधु-श्रावकसंघ पर नमुचि मंत्री द्वारा उपसर्ग किये जाने पर विष्णुकुमार मुनि ने वैक्रियलब्धि का उपयोग करके संघ की रक्षा की थी। इसी प्रकार कुल-गण-संघ पर उपसर्ग आने पर भद्रबाहु स्वामी की तरह रक्षा करना भी वैयावृत्य है। इससे कर्मों की निर्जरा-महानिर्जरा होती है। क्षायिक सम्यक्त्वी कर्मयोगी श्रीकृष्ण जी ने घोषणा की थी-"द्वारिकानगरी पर विपत्ति के बादल मँडरा रहे हैं। ऐसे समय जो नर या नारी भगवान अरिष्टनेमि के पास दीक्षा ग्रहण करेंगे, उनका दीक्षा महोत्सव मैं करूँगा, उनके पीछे परिवार में जो रहेंगे उनका भरण-पोषण मैं करूँगा।" ऐसी . घोषणा और तदनुसार व्यवहार करके श्रीकृष्ण जी ने संघ की वैयावृत्य की; जिसके फलस्वरूप उन्होंने तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध किया। अशुभ कर्मों का क्षय किया। धर्मप्रभावना करने वाले सम्प्रति राजा जैसे व्यक्ति ने आन्ध्र आदि अनार्य प्रदेशों में जैनधर्म का प्रचार करने का भगीरथ कार्य किया। - (१०) साधर्मिक वैयावृत्य-वैयावृत्य का अन्तिम प्रकार है-साधर्मिकों की वैयावृत्य। साधर्मिक वे हैं-जो एक समान धर्म के साधक होते हैं। साधर्मिक शब्द को दो प्रकारों से परिभाषित किया जा सकता है-(१) दर्शन की अपेक्षा से, और (२) चारित्र की अपेक्षा से। सम्यग्दर्शन की अपेक्षा से जिनका तत्त्वज्ञान, तत्त्वों पर तथा देव-गुरु-धर्म पर श्रद्धा, प्ररूपणा समान हैं, चारित्र की अपेक्षा से साधर्मिक के दो रूप हैं-सागारधर्म और अनगारधर्म। श्रावक-श्राविका का, सम्यग्दृष्टि नर-नारी का सागारधर्म समान है और साधु-साध्वी का अनगारधर्म समान है। समग्र धर्म की अपेक्षा से तो साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका चारों समानधर्मा-साधर्मी हैं। चारों तीर्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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