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ॐ निर्जरा, मोक्ष या पुण्य-प्रकर्ष के उपाय : विनय और वैयावृत्यतप ॐ ३६३ 8
अशान्त साधु की ऐसी सेवाभावना से विमुख नहीं हो सकता। एक साधु से समस्त साधुवर्ग का गण, कुल, संघ जुड़ा हुआ है, एक साधु की उपेक्षा, अवज्ञा या अवहेलना समस्त साधु-संघ की उपेक्षादि है; एक साधु की सेवा-पूजा समस्त साधु-संघ या साधुत्व की पूजा है। इस प्रकार की भावना या अनुभूति वैयावृत्यकर्ता में होगी, तभी उसके द्वारा की जाने वाली सेवा वैयावृत्यतप का रूप लेगी।
वैयावृत्यकर्ता की कतिपय विशेषताएँ वैयावृत्य करने वाले की कतिपय विशेषताओं का उल्लेख भी ‘मोक्खपुरिसत्थो' में किया गया है-वैयावृत्यकर्ता में निम्न पाँच गुण होने चाहिए-(१) स्वच्छन्दताविनाशक-वैयावृत्य करने वाला स्वच्छन्द-विचरण नहीं कर सकता। उसे अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाना आवश्यक होता है। सेव्य की इच्छा के अधीन चलना पड़ता है। (२) मद-विशोधक-वैयावृत्यकर्ता में जाति, कुल, बल, तप, श्रुत, लाभ, रूप और ऐश्वर्य (पद आदि अधिकार) का मद नहीं होता। उसमें अपनी • विशेषताओं का सेवा-कार्य में सदुपयोग करने की कुशलता व प्रसन्नता होती है। (३) देहाभिमान-विशोधक-वैयावृत्यकर्ता में शरीर के प्रति अपनेपन की प्रतीति, आसक्ति या रमणता नहीं होती। वैयावृत्य के लिए जिस प्रकार के शारीरिक बल व स्वास्थ्य की अपेक्षा रहती है, उसी अपेक्षा से शरीर के प्रति अत्यन्त मन्द राग होता है। (४) साताभाव-विशोधक-इन्द्रिय और मन के अनुकूल वेदन को साता कहते हैं। वैयावृत्यकर्ता में अपनी सुख-सुविधा एवं साता की ओर तीव्र राग नहीं होता। कभी-कभी तो वह अपनी साता का भोग देकर सेव्य व्यक्ति को साता पहुंचाता है। (५) कषाय-विशोधक-वैयावृत्यकर्ता में क्रोध, मान, माया और लोभ मन्द होते हैं। उदित होने वाले क्रोधादि को विफल करने या उनका प्रशस्तभाव में रूपान्तर करने की कला उसमें होती है। विशुद्ध कषाय होने से उसकी कषाय परम्परा लम्बी नहीं होती। आवेश भावों को वह विशुद्ध करने, दबाने का प्रयत्न करता है।
वैयावृत्य का प्रयोजन और सुफल ... 'भगवती आराधना' में वैयावृत्य का प्रयोजन और सुफल बताते हुए कहा गया है-वैयावृत्य से ये अठारह गुण प्राप्त होते हैं-(१) गुणग्रहण के परिणाम, (२) (वैयावृत्य के पात्र के प्रति) श्रद्धा, (३) भक्ति, (४) वात्सल्य, (५) पात्रता की प्राप्ति, (६) विच्छिन्न सम्यक्त्व आदि का पुनः संधान (संयोग), (७) तपस्या, (८) पूजा (प्रतिष्ठा), (९) तीर्थ (चतुर्विध धर्म-संघ) के साथ अविच्छेद (अव्युच्छित्ति = मधुर सहयोग-सम्बन्ध बना) रहना, (११) समाधि, (१२) जिनाज्ञापालन; (१३) संयम, (१४) परस्पर सहायता (सहयोग), (१५) दान (त्याग) की वृत्ति, (१६) निर्विचिकित्सा [फल में संदेह न होना अथवा (वैयावृत्यपात्र
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