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________________ ® ३६२ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 उनका गण, कुल या संघ है अथवा जो परस्पर वैयावृत्य करने वाले साधर्मिक साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकागण हैं, उनकी सेवा-शुश्रूषा करना, शारीरिक थकान तथा मानसिक व्यथा अशान्ति आदि को दूर करना, शान्ति और समाधि के उत्पादक कार्य एवं जो भी अम्लानभाव से गुणानुरागयुक्त भक्ति के किये जाने वाले कार्य हैं, वे सब वैयावृत्य हैं, जबकि पूर्वोक्त तथाकथित सेवा के अधिकारी पात्र रत्नत्रयाराधक नहीं होते। वैयावृत्यकर्ता की हार्दिक भावना अतएव वैयावृत्यकर्ता में केवल शारीरिक या मानसिक सेवा करने को ही भाव नहीं रहता, उसमें यह भाव भी नहीं रहता कि मैं सेवापात्र का भला कर रहा हूँ, मैं उसका उपकार कर रहा हूँ। पूर्वोक्त प्रकार की तथाकथित सेवा करने वाले के मन में परानुग्रह की भावना होती है, अर्थात् मुझे इसका हित करना चाहिए, यह भाव होता है, जबकि वैयावृत्यकर्ता में स्व-अनुग्रह की भावना होती है; अर्थात् “मैं इस विशिष्ट वैयावृत्य योग्य पूज्य पुरुष या आदरणीय साधक की सेवा करके अपना ही कल्याण कर रहा हूँ। मुझे ऐसे मोक्ष साधकों की सेवा (वैयावृत्य) का अमूल्य अवसर मिला है। यह मेरे कल्याण का हेतु है।" उनकी विशिष्ट सेवा करते हुए ऐसा लगे कि मैं अपना ही उपकार कर रहा हूँ", इस प्रकार गुणीजनों की सेवा में सम्यग्दृष्टिपूर्वक स्वतः श्रद्धा और पूज्य बुद्धि अथवा समर्पण बुद्धि पैदा हो, तब समझना कि ऐसा उच्चस्तरीय सेवाभाव वैयावृत्यतप है, निर्जरा और महानिर्जरा का कारण होता है। इसीलिए वैयावृत्य आभ्यन्तरतप है इसी प्रकार वैयावृत्य किसी को केवल सहयोग देने या परस्पर कर्तव्य-पालन मात्र से तप नहीं होता, वैयावृत्य आभ्यन्तरतप तभी होता है, जब दूसरे की वैयावृत्य (उत्कृष्ट सेवा) को अपनी वैयावृत्य समझे, वैयावृत्य दूसरे की नहीं होती, अपनी होती है। अन्तरात्मा में इस प्रकार की अभिन्नता समता और एकत्व की अनुभूति जब सेवा के साथ जुड़ती है, तब वह आभ्यन्तर तपस्या होती है। सेव्य व्यक्ति के प्रति इतनी आत्मौपम्यभावना हो जाए कि उसका दुःख मेरा दुःख है; उसकी साधना में सहयोग की अपेक्षा मेरी अपेक्षा है, इस प्रकार की समदर्शिता ही वैयावृत्य के आन्तरिक तप होने का सबूत है। वैयावृत्यतप का आराधक इतना बदल जाता है कि उसके अहंत्व-ममत्व की ग्रन्थि टूट जाती है। वह अपने स्वार्थ की या सुख-सुविधा की बात सोच ही नहीं सकता। इस प्रकार की एकत्व और समत्व की भावना और अभिन्नता की अनुभूति ही वैयावृत्यतप की आन्तरिकता का प्रमाण है। वैयावृत्यकर्ता किसी भी रुग्ण, ग्लान, विपन्न, अवसादग्रस्त या मानसिक रूप से पह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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