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________________ निर्जरा, मोक्ष या पुण्य - प्रकर्ष के उपाय : विनय और वैयावृत्यतप ३५१ पूज्यों के प्रति) वर्ण, संज्चलन, भक्ति और बहुमान के कारण वह मनुष्य और देव सम्बन्धी सुगति (आयु) का बन्ध करता है तथा श्रेष्ठ गति या सिद्धि (सर्वकर्ममुक्ति) का मार्ग प्रशस्त (शुद्ध) करता है । विनयमूलक सभी ( प्रशस्त ) कार्यों को सिद्ध कर ता (साध लेता है तथा बहुत-से अन्य जीवों को भी विनयी बना देता है ।" यह है शुश्रूषा (गुरु- साधर्मिकादि की सेवा, परिचर्या अथवा सद्बोध - प्राप्ति या धर्मश्रवण की इच्छारूप शुश्रूषा) विनय से परम लाभ । आशय यह है कि जिन व्यक्तियों से वेदना भी नहीं सही जाती और उत्कटतप या प्रायश्चित्ततप की साधना भी नहीं की जाती, उनके द्वारा दर्शनविनय के अन्तर्गत दोनों प्रकार के उक्त दोनों विनयों की आराधना की जा सकती है। यह सरलता और विनयप्रवणता का आसान मार्ग अपनाना चाहिए। बस, इतना सा पुण्यबन्ध भी पर्याप्त है पूर्वबद्ध पाप को परास्त करने के लिए। ' लोक-व्यवहार में देखा जाता है, गुंडे के साथ वीरतापूर्वक लड़ना शरीरबल का कार्य है, परन्तु गुंडे से लड़ने के लिए उसके मुकाबले में शक्तिशाली प्रतिपक्षी को भिड़ा दिया जाता है, जिससे वह गुंडा हार जाता है। ब्रिटिश सरकार की पॉलिसी थी-“Divide and rule.”- हिन्दू-मुस्लिमों में परस्पर फूट डालो और राज्य करो; परन्तु यहाँ इससे भी आगे बढ़ना है - "Divide and ruin." - पाप से पुण्य को • लड़ाओ और पाप को खत्म कर दो। 'वैराग्यकल्पलता' में महामहोपाध्याय श्री यशोविजय जी ने एक रूपक द्वारा इसे समझाया है - " जब मोह राजा के गुरिल्ला पद्धति के आक्रमणों से धर्मिष्ठ नागरिकजन संत्रस्त हो गये, तब वे सब अपने स्वामी चारित्र राजा के पास गए। चारित्र राजा को भी इसके प्रतीकार का कोई उपाय नहीं सूझा, तब उन्हें १. ' ( क) देखें - आवश्यकसूत्र एवं भगवतीसूत्र वृत्ति नवकारमंत्र का माहात्म्य (ख) थव - थुइ - मंगलेणं जीवे नाण- दंसण-चरित्त - बोहिलाभं जणयई । नाण- दंसण-चरित्त-बोहिलाभ-संपन्ने य णं जीवे अंतकिरियं कष्पविमाणोववत्तिगं आराहणं आराहेइ । - उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. १४ (ग) गुरु - साहम्मिय - सुस्सूसणयाए णं विणय-पडिवत्तिं जणयई । विणय पडिवन्ने य णं जीवे अणच्चासायणसीले नेरइय-तिरिक्ख-जोणिय मणुस्स - देव- दुग्गईओ निरुभइ । वण्णसंजल -भत्ति- बहुमाणयाए मणुस्स- देव सोग्गईओ निबंधइ सिद्धिं सोग्गइं च विसोहेइ । पसत्थाई च विणयमूलाई सव्वकज्जाई साहेइ । अन्ने य बहवे जीवे विणिइत्ता भवइ । - वही, अ. २९, सू. ४ (घ) उत्तराध्ययन वृहद्वृत्ति, पत्र ५७९ (ङ) उत्तराध्ययन अनुवाद विवेचनादि युक्त ( आ. प्र. स. ब्यावर ) से भाव ग्रहण, पृ. ४९० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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