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________________ ® ३५० ॐ कर्मविज्ञान : भाग७ प्रश्न होता है, दर्शनविनय अथवा वैयावृत्य से ऐसे मनोदुर्बल व्यक्तियों की अशुभ (पाप) कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले दुःख, रोग, अशान्ति, आधि, व्याधि, उपाधि, विपत्ति आदि की समस्याएँ कैसे हल होंगी? इसका समाधान यह है कि दर्शनविनय के अन्तर्गत पूज्यजनों या गुणाधिकों की भक्ति, स्तुति एवं अनाशातनाविनय से अशुभ कर्मों का निरोध होने से शुभ योग-संवर तथैव उत्कृष्टभाव से पुण्यवृद्धि होने से पापकर्मों का नाश हो सकेगा। वैयावृत्य में उत्कृष्ट रसायन आने से तीर्थंकर नामगोत्ररूप सर्वाधिक पुण्यराशि का उपार्जन भी हो .. सकता है और इनमें परमात्मभावों तथा आत्म-गुणों में रमणता की या अनुप्रेक्षाभावना से भावित होने पर निर्जरा भी हो सकती है। कहा भी है-जिनेश्वरों की भक्ति से पूर्व उपार्जित कर्म नष्ट हो जाते हैं, क्योंकि गुणप्रकर्ष का बहुमान कर्मरूपी वन को जलाने के लिए दावानल-तुल्य है।' नवकारमंत्र की चूलिका में तो स्पष्ट बताया गया है-“एसो पंच णमुक्कारो, सव्व पाव प्पणासणो।'"-इन पंचविध परमेष्ठियों को किया हुआ नमस्कार समस्त पापों का विनाशक है। साथ ही 'उत्तराध्ययनसूत्र' में बताया है (पूज्यजनों, गुणाधिकों या गुरुजनों के) स्तव (भक्तिबहुमानपूर्वक गुणगान) और स्तुति (स्तोत्र आदि के रूप में गुणोत्कीर्तन) रूप (भाव) मंगल से जीव का ज्ञान (मतिश्रुतादि सम्यग्ज्ञान), दर्शन (क्षायिकादि सम्यक्त्वरूप दर्शन), विरतिरूप चारित्र का बोधिलाभ (जिनोक्त धर्मबोध की प्राप्ति) प्राप्त होता है। ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप बोधि के लाभ से सम्पन्न जीव अन्तःक्रिया (सर्वकर्ममुक्ति) के योग्य अथवा (कल्प) वैमानिक देवों में उत्पन्न होने योग्य आराधना कर पाता है।" इसी प्रकार शुश्रूषाविनय के सन्दर्भ में भी कहा गया है-गुरुओं (अपने से गुणाधिक गुरुजनों = पूज्यों या विशिष्ट चारित्रात्माओं) और साधर्मिकों (धर्म-संघ, कुल, गण एवं समान धर्मा आत्माओं) की शुश्रूषा से जीव विनयप्रतिपत्ति (उनकी वर्णश्लाघा = गुणगुरुव्यक्ति की प्रशंसा, संज्वलन = गुणप्रकाशन, भक्ति = हाथ जोड़ना, आदर देना आदि और बहुमान = आन्तरिक प्रीति विशेष रूप चार अंगों से युक्त विनय के प्रारम्भ या अंगीकार) को प्राप्त होता है। विनय-प्रतिपन्न व्यक्ति (परिवाद = अवमाननादि) आशातन्म से रहित स्वभाव वाला होकर नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव (मनुष्यों में भी म्लेच्छता, अंगविकलता, दरिद्रता आदि) तथा देव-भव में किल्विषीपन आदि) दुर्गतियों का निरोध कर देता है तथा (पूर्वोक्त गुणाधिकों या १. (क) 'देवाधिदेवनुं कर्मदर्शन' में छठा लेख 'पुण्य साथे लड़ावी मारो से भाव ग्रहण (ख) भत्तीए जिणवराणं सिज्जति पुव्व-संचिय कम्मा। गुण-पगरिस-बहुमाणो कम्मवण-दवाणला जेण।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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