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________________ निर्जरा, मोक्ष या पुण्य-प्रकर्ष के उपाय: विनय और वैयावृत्यतप ३४९ = उनके गुणों की स्तुति - गुणगान करना यथायोग्य वन्दना - सुखसाता - पृच्छा करना, गुरुजनों के समक्ष हाथ जोड़कर बैठना, उनकी सेवा-शुश्रूषा करना, उनके आगमन की सूचना मिलने पर स्वागत के लिए सम्मुख जाना, वे विराजें वहाँ तक आहार-पानी आदि से सेवा करना, विहार करें तब दूर तक उनके साथ जाना; यह शुश्रूषाविनय का स्वरूप है । दर्शनविनय का दूसरा रूप है - अनाशातनाविनय । इसका सीधा-सा अर्थ है–देव, गुरु और धर्म इस श्रद्धेय पूज्य त्रिपुटी की आशातना यानी अवहेलना, अवमानना अथवा अशिष्टता से युक्त व्यवहार न करना । आशातना का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-आ अर्थात् ज्ञानादि गुणों की आय लाभ या प्राप्ति का मार्ग, शातना = खण्डित कर देना = रोक देना, ठप्प कर देना । अथवा आ = चारों ओर से पूज्यों को शातना देना कष्ट पहुँचाना आशातना है। ऐसी आशातना न करना अनाशातना है। अनाशातनाविनय के कुल ४५ भेद होते हैं - ( १ ) अरिहन्त, (२) अरिहन्त प्ररूपित धर्म, (३) आचार्य, (४) उपाध्याय, (५) स्थविर, (६) कुल, (७) गण, (८) संघ, (९) क्रियावादी ( जीव - अजीव आदि तत्त्वों पर श्रद्धाशील ), (१०) संभोगी (समनोज्ञ तथा सम समाचारी वाले साधु-साध्वीगण ), तथा (११ से २५) मतिज्ञान आदि पंचविधज्ञान के धारक । इस प्रकार इन १५ की आशातना न करना, उनकी भक्ति करना और उनकी स्तुति करना, यों १५ भेदों के इन तीन-तीन को गुणित करने से १५ x ३ ४५ भेद अनाशातनाविनय के होते हैं । ' दर्शनविनय से संवर, निर्जरा, मोक्ष और पुण्यवृद्धि का सरलतम उपाय पिछले निबन्ध में बताया गया था कि पूर्वबद्ध कर्म जब तक अबाधाकाल (सत्ता या सुषुप्ति) में पड़ा है, तब तक उसे प्रायश्चित्ततंप ( के आलोचनादि अंगों) से शौर्यपूर्वक खत्म कर देना चाहिए। परन्तु जिनमें इतना मनोबल या आत्म-बल नहीं है कि वे पूर्व- कर्मों को अबाधाकाल में समाप्त कर सकें और न ही खूंख्वार अशुभ कर्मों के उदय में आ जाने पर समभाव से समाधिपूर्वक सहन करने की शक्ति है, ऐसे मनुष्यों के लिए देवाधिदेव भगवान महावीर ने गणधर गौतम द्वारा ऐसा प्रश्न पूछने पर एक मध्यममार्ग बताया है- पूर्वोक्त दर्शनविनय के अन्तर्गत बताए गए १५ प्रकार के पूज्यों या गुणाधिकों के प्रति अनाशातना, भक्ति और स्तुति का तथा दशविध वैयावृत्यतप के अन्तर्गत प्ररूपित वैयावृत्य का । = = १. ( क ) औपपातिकसूत्र : तपवर्णन (ख) 'मोक्षप्रकाश' (श्री धन मुनि जी ) से भाव ग्रहण ( ग ) 'जैनधर्म में तप' से भाव ग्रहण (घ) 'धर्मसंग्रह' में भक्ति, बहुमान और वर्णवाद (गुणग्रहण) ये तीन तथ्य हैं (ङ) आशांतंना णामं नाणादि- आयस्स सातणा । २. स्थानांगसूत्र Jain Education International = - आवश्यकचूर्णि (जिनदासगणि) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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