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________________ * ३४८ कर्मविज्ञान : भाग ७ अध्ययन तो उसने किया था, किन्तु विनय आदि व्यवहार में वह निपुण नहीं था । गौतम स्वामी ने उसकी जिज्ञासा का समाधान बहुत ही स्नेह-सौहार्द्र के साथ किया, जिससे वह सन्तुष्ट भी हुआ, किन्तु वह उनके प्रति कृतज्ञता प्रगट किये बिना ही जाने लगा। तब गौतम स्वामी ने उसे मधुर वचनों से कहा- “आयुष्मन् ! किसी से धर्म का तथा हित-शिक्षा का एक भी वचन सुनने को मिले तो क्या उसके प्रति ऐसा व्यवहार करना उचित है ?" यह सुनकर उदक पेढालपुत्र अनगार ने विनयपूर्वक कहा - "भंते ! मुझे इस विषय में कुछ भी अनुभव नहीं है। कृपया आप मुझे मार्गदर्शन करिये।" गौतम स्वामी ने कहा - " हे उदक ! तथारूप श्रमण या माहन से . एक भी आर्य सुवचन (हित - शिक्षा का एक भी बोल ) सुनने को मिले तो उनके प्रति ( कृतज्ञता प्रगट करने हेतु ) पूज्य बुद्धि के साथ नमस्कार करना चाहिए, उनका सत्कार-सम्मान करना चाहिए। यह है ज्ञानविनय का फलितार्थ ! 'दशवैकालिकसूत्र' में भी कहा है- “ जिससे धर्म का एक पद भी सुनने - सीखने को मिले, उसका विनय-सत्कार करके कृतज्ञता प्रगट करना चाहिए।”” ,१ दर्शनविनय का परिष्कृत स्वरूप (२) दर्शनविनय - देव, गुरु, धर्म तथा जिनोक्त तत्त्वों के प्रति दृढ़ श्रद्धा, भक्ति, निष्ठा रखना । सम्यक्त्व के ६७ बोलों को जानकर तदनुसार आचरण करना, मिथ्यात्व के विविध प्रकारों और कारणों को जानकर उनसे आत्मा को बचाना, सम्यग्दर्शन का निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से आदरपूर्वक विचार करके दर्शनाचार में प्रवृत्त होना। व्यवहार सम्यग्दर्शन के शंकादि ५ अतिचारों तथा चल, मल और अगाढ़ दोषों से बचना तथा आठ अंगों का आचरण करना दर्शनविनय का स्वरूप है। ३ दर्शनविनय के मूल और उत्तर भेद सम्यग्दर्शन गुण में निष्ठावान तथा आगे बढ़े हुए दर्शन गुणियों की अपेक्षा दर्शनविनय के मुख्य दो भेद हैं - ( १ ) शुश्रूषाविनय, और (२) अनाशातनाविनय । शुश्रूषाविनय के अनेक प्रकार 'औपपातिकसूत्र' में बताए हैं - शुद्ध सम्यग्दृष्टि जनों तथा गुरुजनों आदि के आने पर खड़ा होना, उन्हें बैठने के लिए आसन का आमंत्रण देना, वस्त्रपात्र आदि योग्य वस्तुओं से गुरुजनों का स्वागत-सम्मान करना, १. सूत्रकृतांगसूत्र, श्रु. २, अ. ७, सू. २७ २. जस्संतिए धम्मपयाई सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे । - दशवैकालिक, अ. ९, उ. १, गा. १२ ३. 'तत्त्वार्थसूत्र विवेचन' (उपाध्याय केवल मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. ४३१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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