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________________ * निर्जरा, मोक्ष या पुण्य-प्रकर्ष के उपाय : विनय और वैयावृत्यतप * ३४७ * में बाधक बनता है, वाणी की-भाषा की ऋजुता और पवित्रता में बाधक बनता है, तथैव काया की ऋजुता और पवित्रता में तथा शिष्टाचार और नम्र-व्यवहार में भी अहंकार बाधक बनकर खड़ा हो जाता है। जब तक अहं की ग्रन्थि नहीं खुलती है, मानकषाय मन्द नहीं होता, अष्टविध मदों में से किसी भी मद से मन-वचन-काय ग्रस्त रहता है, तब तक ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा मन-वचन-काय की सरलता, पवित्रता तथा चित्त की निर्मलता उपलब्ध नहीं होती। इसी प्रकार जहाँ तन-मन में अहं तनकर खड़ा हो, वहाँ पूज्य पुरुषों, गुणाधिक महान् आत्माओं तथा समाज के योग्य गुणी व्यक्तियों के प्रति नम्रता, शिष्टता, विनीतता का व्यवहार या उपचार भी तथा उनके प्रति विनय के शास्त्रोक्त विविध व्यवहारों में बहुत ही विघ्न-बाधाएँ आती हैं। उन महापुरुषों से वह ज्ञान, दर्शन आदि का कोई भी लाभ नहीं ले सकता, विनय के अभाव में। ज्ञानादि सप्तविधविनय का स्वरूप एवं फलितार्थ (१) ज्ञानविनय-आलस्यरहित होकर श्रद्धा, निष्ठा, आदर और भक्ति के साथ सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना, सम्यग्ज्ञान के मूल स्रोत, श्रुतज्ञान की प्राप्ति में निमित्त जिनोक्त शास्त्रों, आगमों, ग्रन्थों आदि का अध्ययन, मनन करके ज्ञान प्राप्त करना, प्रत्येक प्रवृत्ति में ज्ञायकभाव (ज्ञाताभाव) रखने, ज्ञानोपयोग करने का अभ्यास करना, पढ़े हुए ज्ञान का बार-बार चिन्तन-मनन करना, तत्त्वज्ञानचर्चा करके उसे स्मृति में दृढ़ करना तथा सम्यग्ज्ञान के प्रति अश्रद्धा, अविनय, आशातना प्रगट न करना, मिथ्याज्ञान से दूर रहना ज्ञानविनय है। साथ ही मति, श्रुत, अवधि, • मनःपर्याय और केवलज्ञान, इन सम्यग्ज्ञान के पाँच प्रकारों पर श्रद्धा-विश्वासपूर्वक चिन्तन-मनन करके अपने मतिश्रुतज्ञान को निर्मल करने का अभ्यास करना पंचज्ञानविनय है। सम्यग्ज्ञान-प्राप्ति के साधनों तथा सम्यग्ज्ञान-प्राप्ति में प्रबल निमित्त ज्ञानीजनों पर श्रद्धा-भक्ति-बहुमान रखना, उनकी आशातना-अविनयअभक्ति न करना। उनसे विनयपूर्वक विधिवत् ज्ञान का ग्रहण एवं अभ्यास करना ज्ञानविनय है। गुणियों की अपेक्षा भी ज्ञानविनय के पाँच भेद माने जाते हैं। __ ज्ञानी पुरुषों के प्रति विनयभाव न होने से, अविनयपूर्ण व्यवहार होने पर ज्ञान फलीभूत नहीं होता, अहंकार के कारण आशातना और अकृतज्ञता के कारण ज्ञानावरणीय कर्म छूटने के बजाय उलटे बँध जाता है। भविष्य में जिसका फल अज्ञानता और मूढ़ता, मूकता एवं मंदबुद्धि आदि के रूप में मिलता है। अतः विद्या और शिक्षा के साथ विनय अत्यावश्यक है। - 'सूत्रकृतांगसूत्र' में उल्लेख है-एक बार उदक पेढालपुत्र नामक पार्श्वनाथसंतानीय अनगार कुछ जिज्ञासा लेकर गणधर गौतम स्वामी के पास आया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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