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________________ * ३५२ 8 कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 धर्मबोधकर नामक महामंत्री ने परामर्श दिया-मोह राजा के पापकर्मरूपी खूख्वार सैन्य के खिलाफ हम सीधे लड़ नहीं सकेंगे, इसलिए हमें उसके खिलाफ पुण्यकर्म का सैन्य खड़ा कर देना और उसे भिड़ा देना चाहिए। वही मोह राजा के पापकर्मरूपी सैन्य को खत्म कर सकेगा।" ___ और वह प्रबल पुण्यकर्म प्राप्त हो सकता है दर्शनविनय के अन्तर्गत पूज्यजनों या गुणाधिकों की स्तव, स्तुति, भक्ति, बहुमान एवं सेवा-शुश्रूषा से। जिसका कि हमने शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा इससे पूर्व उल्लेख किया है। कहते हैं-छप्पनकोटि यादवों की द्वारिकानगरी को जलाकर भस्म करने के लिए उद्यत हुए द्वैपायन के जीव व्यन्तरदेव के पापबलरूप पराक्रम को स्थगित कर दिया था-द्वारिका के नागरिकों की लगातार बारह वर्ष तक सामूहिक रूप से की गई दैनिक अरिहन्त भक्ति, स्तुति और उनके मार्गदर्शनानुसार आयम्बिलतप की शक्ति से प्राप्त हुए पुण्यबल ने। . __छोटी-सी कूलड़ी में घी भरकर उसे बेचकर आजीविका चलाने वाले श्रावक भीमा कुलड़िया ने अपनी सर्वस्व कमाई सात पैसे का संघ-भक्ति के लिए प्रसन्नतापूर्वक दान देकर इतना प्रबल पुण्य उपार्जित किया. कि उस पुण्यकर्म के प्रभाव से उसका दरिद्रता के रूप में बद्ध पापकर्म दूर हो गया, उसके घर में स्वर्ण-मुद्राओं से भरा कलश निकला। इसके अतिरिक्त सदैव कलहकारिणी उसकी पली का स्वभाव सदा के लिए परिवर्तित हो गया, वह क्षमाशील, सहिष्णु बन गई। बंबई का एक व्यापारी व्यापार में घाटा लग जाने से रातभर में लाखों रुपयों का कर्जदार बन गया। उसने सोचा-कर्ज उतारने का कोई उपाय नहीं है, इसलिए मोरथोथा एक प्याले में घोलकर आत्महत्या करने का विचार किया; किन्तु इतने में ही उसके किसी पूर्व पुण्यबल से उसे एक सुविचार स्फुरित हुआ-आत्महत्या का विचार गलत है, प्रभो ! मेरा यह पापमय विचार निष्फल हो। 'भक्तामर स्तोत्र' में कहा है-“त्वत्संस्तवेन भव-संततिसन्निबद्धं पापं क्षणात् क्षयमुपैति शरीरभाजाम्।"अर्थात् प्रभो ! आपकी स्तुति-भक्ति से भव-परम्परा से बँधे हुए पापकर्म क्षणभर में क्षीण (नष्ट) हो जाते हैं।' बस, वह परमात्मा की स्तुति और भक्ति में तल्लीन हो गया। उसकी उक्त स्तुति एवं भक्ति के प्रभाव से सवेरा होने से पहले ही वस्तुओं के भावों में तेजी आ गई। उसके पुण्यबल से सारी बाजी पलट गई।' यह हैदर्शनविनय के प्रभाव से पुण्य प्रबल होकर पूर्वबद्ध पाप को नष्ट करने का उपाय ! १. (क) 'वैराग्यकल्पलता' (महामहोपाध्याय श्री यशोविजय जी म.) से भाव ग्रहण (ख) 'देवाधिदेवनुं कर्मदर्शन' (पं. चन्द्रशेखरविजय जी) से भावांश ग्रहण, पृ. ५२-५४ (ग) 'भक्तामर स्तोत्र' (मानतुंगाचार्य रचित), श्लो. ७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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