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* प्रायश्चित्त: आत्म- -शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय ४ ३४१
(५) प्रकुर्वक हो - आलोचित दोषों को प्रायश्चित्त तत्काल देकर अपराध की शुद्धि (आत्म-शुद्धि) कराने में समर्थ हो ।
(६) अपरिस्रावी हो - गम्भीर हो, आलोचना करने वाले के दोषों को दूसरे किसी के भी सामने प्रकट करने वाला न हो ।
(७) निर्यापक हो - यदि किसी ने गुरुतर दोष किया हो, किन्तु शरीर से अशक्त, रोगी या पीड़ित हो, उसे उसकी शक्ति के अनुसार प्रायश्चित्त देकर शुद्धि कराने वाला हो ।
(८) अपायदर्शी हो - दोष छिपाने वाले को आलोचना न करने तथा दोष को छिपाने के शास्त्रोक्त दुष्परिणाम समझाकर आलोचना कराने में निपुण हो । '
जिस प्रकार मनोवैज्ञानिक चिकित्सक मनोरोगी के द्वारा आलोचना सुनकर उसकी स्थिति एवं कारणों का विश्लेषण करके उसकी यथायोग चिकित्सा के निर्देश देता है, तदनुसार आचरण करके मनोरोगी की आत्मा स्वस्थ एवं शुद्ध हो जाती है । उसी प्रकार अध्यात्मरोग के चिकित्सक गुरु या गीतार्थ साधु भी मुमुक्षु आत्मा से आलोचनादि सुनकर जिस कोटि के दोष का अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार या अनाचार के रूप में सेवन किया है, तदनुसार प्रायश्चित्त का निर्देश करता है, तदनुसार आचरण करने से उस साधक की आत्मा भी शुद्ध और स्वस्थ हो जाती है । 'मनुस्मृति' में कहा गया है - " जैसे-जैसे मनुष्य अपना अधर्म (पापदोष) लोगों या गुरुजनों के समक्ष यथार्थ रूप से प्रकट करता है, वैसे-वैसे ही वह अधर्म से उसी प्रकार मुक्त होता जाता है, जैसे साँप केंचुली से ।" 'पाराशर स्मृति' में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है- “पापाचरण हो जाने पर उसे छिपाना नहीं चाहिए । छिपाने से वह बढ़ता जाता है । पाप छोटा हो या बड़ा, किसी गम्भीर धर्मवेत्ता के समक्ष निवेदन कर देना चाहिए। इस प्रकार पाप को प्रगट कर देने से वे अध्यात्मवैद्य ( चिकित्सक) उसी प्रकार पापों को नष्ट कर देते हैं, जिस प्रकार बुद्धिमान् वैद्य रोगी के रोग को चिकित्सा द्वारा समूल नष्ट कर देते हैं ।" "
१. भगवतीसूत्र, श. २५, उ. ७; स्थानांगसूत्र, स्था. ८ २. (क) यथा यथा नरोऽधर्मं स्वयं कृत्वाऽनुभाषते । तथा तथा त्वचेवाहिस्तेनाऽधर्मेण मुच्यते ॥ (ख) कृत्वा पापं न गुह्येत् गुह्यमानं विवर्धते ।
स्वल्पं वाऽथ प्रभूते वा, धर्मविदे तन्निवेदयेत् ॥ ते हि पापे कृते वैद्या, हन्तारश्चैव पाप्मनाम् । व्याधितस्य यथा वैद्या बुद्धिमन्तो रुजापहाः ॥
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- मनुस्मृति
- पाराशर स्मृति
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