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________________ ॐ ३४२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ * प्रायश्चित्त तप के दस प्रकार और उनका स्वरूप पूर्वोक्त आठ गुणों से युक्त गम्भीर हृदय आध्यात्मिक चिकित्सक गुरु आदि अध्यात्म-दोष से युक्त कर्मरोगी से आलोचनादि सुनकर उसकी मनोवृत्ति, इरादा कारण, शक्ति, क्षमता, मनःस्थिति, परिस्थिति आदि देख-परखकर ही उस कोटि क प्रायश्चित्त देते हैं। 'स्थानांगसूत्र' में प्रायश्चित्त के दस प्रकार बताये हैं (१) आलोचनाह प्रायश्चित्त वह है, जहाँ गुरु या विश्वस्त व्यक्ति के समक्ष अपने दोषों की निष्कपटभाव से आलोचना (आत्म-निन्दना, गर्हणा, क्षमापना) से शुद्धि हो जाती है। (२) प्रतिक्रमणार्ह प्रायश्चित्त वह है, जहाँ अपने दोषों की शुद्धि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग, इन पाँचों के रूप में स्वयं वर्गीकरण करके भूत, भविष्य और वर्तमानकाल का प्रतिक्रमण करने से हो जाती है। (३) तदुभयाई प्रायश्चित्त में आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों होते हैं। (४) विवेकाह प्रायश्चित्त वहाँ होता है, जहाँ गुणों के साथ थोड़ा-सा दोष प्रविष्ट हो गया हो, उसे निकाल देना-पृथक् कर देना। (५) व्युत्सर्गार्ह प्रायश्चित्त-जिस वस्तु का त्याग किया हो, भूल से वह वस्तु ग्रहण कर ली हो तो फिर उस वस्तु को आजीवन ग्रहण करने का त्याग (व्युत्सर्ग) करना अथवा किसी की चोरी की हो, बाद में पश्चात्तापपूर्वक आलोचनादि करके सदा के लिए चोरी का त्याग करना, उस व्यक्ति की क्षतिपूर्ति करना। (६) तपस्यार्ह प्रायश्चित्त-जहाँ किसी अपराध या दोष की शुद्धि किसी अर्थ या पदार्थ के त्याग से नहीं होती, उनके लिए शास्त्रविहित या आचार्य द्वारा नियत तप करने से ही शुद्धि होती है। फिर वह तप बाह्य हो या आभ्यन्तर, प्रायश्चित्त दाता पर निर्भर है। (७) छेदार्ह प्रायश्चित्त-बड़ी हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य आदि व्रतों या महाव्रतों में कोई दोष या अपराध होने पर उक्त साधक के दीक्षा-पर्याय का छेद कर दिया जाता है। (८) मूलार्ह प्रायश्चित्त वहाँ होता है, जहाँ अपराध या दोष अनाचार की कोटि में पहुँच जाता है। उसे नये सिरे से महाव्रत या अणुव्रत का ग्रहण कराया जाता है। (९-१०) अवस्थाप्यार्ह तथा पारांचिकाह प्रायश्चित्त बड़े ही कठोर हैं। जो साधक ढीठ बनकर अपने महाव्रतों का बार-बार भंग करता है, उसे संघ बहिष्कार, उक्त क्षेत्र से बहिष्कार, समाज का असहकार तथा अमुक कठोर तपश्चरण आदि के रूप में प्रायश्चित्त दिया जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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