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________________ ॐ ३४० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ बातें ज्यों की त्यों खोलकर रख दी और कहा-अब आप मुझे इसका जो भी दण्ड दें, स्वीकार होगा। परन्तु हुआ वही, जिसकी सम्भावना डॉ. पीले ने बताई थी। अर्थात् मालिक ने उसकी सचाई, ईमानदारी और नैतिक मूल्यों के प्रति जागी हुई दृढ़ निष्ठा से प्रभावित होकर उसके खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की, उसे. क्षमा कर दिया। इससे युवती का विक्षुब्ध हृदय और पश्चात्ताप शान्त हो गया। इस भावनाशुद्धि के परिणामस्वरूप उसके भावनाजन्य क्षोभ के अन्त हो जाने से उसे दुबारा फिर कभी खुजली नहीं उठी। यह है-मनोरोग की पश्चात्ताप, आलोचना, दोष स्वीकार आदि के कारण हुई मनश्चिकित्सा का शुभ परिणाम ! . .. आलोचना सुनकर प्रायश्चित्त देने वाले गुरु की आठ गुणात्मक अर्हताएँ . __ जिस प्रकार मनोवैज्ञानिक चिकित्सा की प्रक्रिया में मनोकायिक रोगी अपने जीवन में हुई भूलों को ज्यों का त्यों रख देता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक चिकित्सा की प्रक्रिया में भी आत्मार्थी मुमुक्षु-साधक निन्दना-गर्हणापूर्वक अपनी भूलों को दिल खोलकर योग्य गुरु या योग्य गीतार्थ स्थविर आदि में से किसी के समक्ष आलोचना करता है-दोष प्रकट कर देता है। अपने दोषों की आलोचना किस विश्वस्त गुरुजन के समक्ष की जाये, उसके लिए व्यवहारसूत्र में उसकी आठ गुणात्मक अर्हताएँ बताई गई हैं (१) वह आचारवान् हो। (२) वह आधारवान् हो-उसकी स्मृति, अवधारणा स्थिर हो, सुनी हुई बात को ठीक से ग्रहण करके गम्भीरतापूर्वक विचार करने वाला हो। (३) वह व्यवहारवान् हो-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत व्यवहार, इन पाँचों व्यवहारों का, ज्ञाता हो तथा उत्सर्ग-अपवाद का, प्रवृत्ति-निवृत्ति आदि का यथोचित व्यवहार करता हो। (४) अपव्रीडक हो, अर्थात् यदि आलोचना करने वाला लज्जावश अपने दोषों को छिपाने की चेष्टा करने लगे तो वह आत्मीयता, सहानुभूति और मधुरतापूर्वक आश्वासन एवं विश्वास देकर उसकी लज्जा, संकोच, हिचक या शंका को दूर करके उससे यथार्थ आलोचना कराने वाला हो। वह इस प्रकार अनुरोध की भाषा में कहे-“देखो, वत्स ! दोष हुआ है या भूल हो गई है, तो घबराओ मत। उसे मेरे सामने खोलकर रख दो। कुछ भी छिपाना मत। छिपाओगे तो (कर्मों की) नई गाँठ, बन जायेगी। नहीं छिपाओगे तो जो गाँठ बनी है, वह खुलती चली जायेगी। प्रतिष्ठाभंग, निन्दा, लोक-लज्जा, अपमान आदि की बातें मन से निकाल दो। विशुद्ध चित्त से भूल की प्रक्रिया को आद्योपान्त कह दो।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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