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________________ * प्रायश्चित्त : आत्म-शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय * ३३३ ॐ पापों की लज्जा छोड़कर आलोचना-निन्दना-गर्हणापूर्वक प्रायश्चित्त करने की तमन्ना। ऐसा करने से उन पापकर्मों के उदय होने से पहले ही उनका नाश हो जाने से संभवित रोग, शोक, दुःख, संताप, दारिद्र्य आदि भी नष्ट हो जाते हैं। आलोचना-निन्दना-गर्हणापूर्वक प्रायश्चित्त का शुभ परिणाम सुना है, एक युवक ने अपनी सहोदर बहन के साथ की हुई गम्भीर भूल पर बारह वर्ष तक इसी प्रकार आलोचना-निन्दना-गर्हणापूर्वक प्रायश्चित्त किया। जिसके फलस्वरूप उसके कितने ही पाप धुल गये। लोगों द्वारा की जाती हुई निन्दा की उसने परवाह नहीं की। उसका हृदय नम्र, स्वच्छ, सरल हो गया। फलतः उसके शरीर में आमर्श (स्पर्श) औषध नामक लब्धि उत्पन्न हो गई, फिर जो भी उसका चरण-स्पर्श करता, उसका रोग नष्ट हो जाता। हजारों रोगियों ने उससे आरोग्य प्राप्त किया। एक अन्य घटना के अनुसार-माता-पुत्र की गम्भीर भूल के पश्चात् उनके द्वारा भी इसी प्रकार की गई तीव्र निन्दना-गर्हणा-आलोचना से तथा उन पर लोगों द्वारा बरसाये गये निन्दा, गर्हा, भर्त्सना एवं धिक्कार के बौछारों को धैर्य, स्वस्थता और समभाव से सहन करने से उनके कर्मों का क्षय हो गया, उनका जन्म-मरणरूप संसार सिर्फ दो भव का रह गया। . इस प्रकार के प्रायश्चित्त एवं पश्चात्ताप की ताकत से रथनेमि, दृढ़प्रहारी, चिलातीपुत्र, अर्जुन मुनि, इलायचीपुत्र आदि हजारों साधकों ने अपने पापकर्मों को नष्ट किया है। - गुरु आदि की साक्षी से की जाने वाली आलोचना का स्वरूप यह तो हुआ-प्रायः आत्म-साक्षी से आलोचनादि द्वारा पश्चात्ताप तप का विवरण गुरु, गीतार्थ या महान व्यक्ति की साक्षी से किये जाने वाली आलोचनादि तो इन सबसे प्रबल है, सांगोपांग है और सरल निश्छल हृदय से किये जाने पर संसार-सागर से पार कर देती है अथवा संसार की स्थिति को अत्यन्त ह्रस्व बना देती है। उक्त आलोचना का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ इस प्रकार है-"ज्ञानादि में या संयमादि में जो कोई भी दोष जिस किसी तरह से लगे हों, उन सबको सरल निश्छल हृदय निष्कपटभाव से गुरुजनों के समक्ष प्रकट कर देना-गुरुदेव ! मुझसे ये-ये दोष हो गये हैं, इस प्रकार दोष या दोषों को क्रमशः पश्चात्तापपूर्वक स्वीकार कर लेना आलोचना है।"१ १. आ = अभिविधिना सकलदोषाणां लोचना = गुरुजन-पुरतः प्रकाशना-आलोचना (आलोयणा) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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