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ॐ ३३४ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
आलोचना किस विधि से, किस प्रकार करनी चाहिए ? ___ आलोचना करने की संक्षिप्त विधि 'स्थानांगसूत्र' में इस प्रकार दी गई है“प्रायश्चित्तेच्छुक साधक को ज्ञान में, दर्शन में और चारित्र में जिस प्रकार का दोष-अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार अथवा अनाचार में से जिस कोटि का, जैसा भी दोष लगा हो, उसकी क्रमशः आलोचना, प्रतिक्रमणा, निन्दना, गर्हणा, व्यावर्तन (निवृत्ति) करके विशोधि करनी चाहिए, पूनः वैसा न करने का संकल्प करना चाहिए तथा यथोचित प्रायश्चित्त एवं तपःकर्म स्वीकार करना चाहिए।". आलोचना किस प्रकार की जाती है ? इसके लिए 'ओघनियुक्ति' में कहा गया है"जिस प्रकार बालक अपने द्वारा किये गये उचित-अनुचित सभी कार्यों को माता-पिता के सामने सरलभाव से कह देता है, उसी प्रकार साधक को भी गुरुजनों के समक्ष दम्भ (माया) और मद (अहंकार) से रहित होकर यथार्थरूप से अपनी आलोचना (आलोयणा) करनी चाहिए।' इसमें क्षमापना, भावना, क्षतिपूर्ति और दण्ड-प्रायश्चित्त भी समाविष्ट है। यद्यपि इस प्रकार से गुरुजनों, बुजुर्गों या समाज के समक्ष अपने दोषों का प्रकट करना भी बहुत साहस और आत्म-बल का कार्य है। तथापि आत्मार्थी और मुमक्ष-साधक के लिए सर्वकर्ममुक्तिरूपं मोक्ष के मार्ग पर निराबाधगति करने के लिए बहुत उपयोगी है। आलोचना करने वाले की अर्हताएँ
इस प्रकार से आलोचना वही कर सकता है, जिसका हृदय कोमल हो, जो पापभीरु हो, विनीत हो, सरल हो, इहलोक-परलोक सम्बन्धी अपने वर्तमान और भविष्य का विवेकपूर्वक विचार करता हो तथा जो यह सोचता है कि यदि मैंने कृत पापों की आलोचना नहीं की, उन्हें छिपाने की चेष्टा की हो तो मेरा वर्तमान और भविष्य दोनों बिगड़ेंगे, मेरी इस जीवन की सारी साधना अनशनादि तप, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता, केशलोच, परीषह-सहन आदि समस्त क्रियाएँ बेकार हो जायेंगी, परलोक में भी मैं साधना की दृष्टि से दरिद्र और सम्भवतः दुर्लभबोधि भी
१. तिण्हे अतिक्कमेवइकम्मे अइयारे अणायारे प. तं.-णाण अति-वइ-अइ-अणायारे,
दंसण अति-वइ-अइ-अणायारे, चरित्त अति-वइ-अइ-अणायारे। तिहमतिक्कमाणं " वइक्कमाणं अतिचाराणं अणायाराणं आलोएज्जा, पडिक्कमेज्जा, णिंदेज्जा, गरिहेज्जा, विउद्देज्जा, विसोहेज्जा, अकरणयाए अब्भुटेज्जा. अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जेज्जा; तं जहा-णाण-दंसण-चरित्त अतिक्कमस्स, वइकम्मस्स, अइयारस्स अणायारस्स।
___-स्थानांगसूत्र, स्था. ३, उ. ४, सू. ४४०-४४७ २. जह बालो जंपंतो कज्जमकज्जं व उज्जुयं भणइ। तं तह आलोएज्जा माया-मय-विप्पमुक्को उ॥
-ओघनियुक्ति, गा. ८०१
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