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________________ * ३३२ कर्मविज्ञान : भाग ७ जगत् एक छलावा है। इससे सदा निरपेक्ष रहना चाहिए। तेरा लक्ष्य बहुत ऊँचा है, मंजिल अभी दूर है। तू आत्म-भावों में ही डुबकी लगा, इन पर भावों के प्रति मोह, राग, द्वेष छोड़। अध्यात्म रस ही परम रस है । उसी का आस्वादन कर ।" इस प्रकार चिन्तन की गहराई में उतरते-उतरते भावविशुद्धि के कारण उनकी आत्मा विकास की चरम सीमा को छूने लगी। मोहकर्म सहित चारों घातिकर्मों का आवरण नष्ट हो गया । ज्ञान सूर्य की प्रखर रश्मियाँ चारों ओर फैलने लगीं। सूर्योदय होते-होते सुव्रत मुनि के अन्तर में छिपा अनन्तज्ञान का सूर्य प्रकाशित हो उठा। वे केवलज्ञानी, सर्वज्ञ और अर्हत् बन गए। यह है - आलोचना, निन्दना, गर्हणा का अचिन्त्य फल ! जो दीर्घकालिक कठोर अनशनादि तप नहीं कर सकते, उनके लिए प्रायश्चित्ततप में पराक्रम उचित जो व्यक्ति भगवान महावीर, धन्ना अनगार आदि जैसी दीर्घ अनशनादि बाह्यतप के साथ आभ्यन्तरतप नहीं कर सकते, जिनमें ऐसी कठोर साधना करके कर्मों को चूर-चूर करने की शक्ति नहीं है अर्थात् जिनमें इतने उग्र तप करने का शौर्य नहीं है। उन्हें आभ्यन्तरतप के सर्वप्रथम अंग - प्रायश्चित्ततप द्वारा सुव्रत मुनि की तरह अबाधाकालीन कर्मों को प्रबलता से नष्ट कर देने का शौर्य प्रगट करना चाहिए। कर्म जब तक उदय में नहीं आते, अबाधाकाल (सत्ता) में उपशान्त पड़े रहते हैं, तब तक उद्वर्तन और अपवर्तन करण द्वारा उनकी नियत स्थिति और रस में परिवर्तन तथा उस कर्म का अपने सजातीय कर्म में संक्रमण किया जा सकता है, पूर्णतया नष्ट भी किया जा सकता है; बशर्ते कि वह कर्म निकाचितरूप सेन बँधा हो । अतः किसी व्यक्ति से कोई भी पापकर्म, अपराध या दोष हो गया हो, तो उसे प्रतिक्रमण, निन्दना - गर्हणा - आलोचनारूप प्रायश्चित्ततप द्वारा नष्ट कर देने का अथवा अशुभ को शुभ में परिवर्तन कर देने का तथा उसकी स्थिति और रस का घात कर देने का पराक्रम करना चाहिए । ' हार्दिक पश्चात्ताप : उदय में आने से पहले कर्मदहन करने का उपाय पश्चात्ताप ऐसी तीव्रतम चिनगारी है, जिससे पापकर्मों के ढेर को भी भस्म किया जा सकता है | चाहिए किसी ज्ञानी गम्भीर गुरु के चरणों में अपने तमाम १. (क) 'देवाधिदेवनुं कर्मदर्शन' (पं. चन्द्रशेखरविजय जी म. ) से भाव ग्रहण, पृ. ४१-४२ (ख) इसके विस्तृत विवेचन के लिए देखें - कर्मविज्ञान, भा. ५, खण्ड ८ में 'कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ - १, २' शीर्षक निबन्ध तथा कर्मविज्ञान, भा. २, खण्ड ४ में 'कर्मवाद : निराशावाद या पुरुषार्थयुक्त आशावाद' शीर्षक निबन्ध तथा 'जैन - कर्मविज्ञान की विशेषता' शीर्षक निबन्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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