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________________ ® प्रायश्चित्त : आत्म-शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय ॐ ३३१ * ___ एक बार आचार्य शुभंकर सुव्रत मुनि आदि शिष्य-परिवार के साथ राजगृह पधारे। श्रावकों से सुना कि आज मोदकोत्सव है। अतः सब घरों में मोदक ही मिलेगा। अतः सुव्रत मुनि के सिवाय आचार्य आदि सभी साधुओं ने एकाग्रतापूर्वक स्वाध्याय, ध्यान करने हेतु उपवास कर लिया। सुव्रत मुनि के मन में आज केसरिया मोदक लाने और खाने की ललक उठी। वे गुरुजी से आज्ञा लेकर जैनों के घरों में भिक्षा के लिए घूमने लगे। जहाँ भी जाते केसरिया मोदक के लिए पूछने लगे। एक-दो घरों में इतने महँगे केसरिया मोदक बने हुए भी थे, लेकिन मोदकों का थाल कहीं कच्चे पानी तो कहीं हरी वनस्पति से छू रहा था। अतः वे अग्राह्य हो गए। मुनि की आतुरता बढ़ती जा रही थी। घूमते-घूमते सन्ध्याकाल हो गया, पर कहीं पर भी केसरिया मोदक का सुयोग नहीं मिला। फिर भी वे अपनी साधना और मर्यादा को भूलकर अपनी केसरिया मोदक की धुन में घूम रहे थे। जैनेत्तर मौहल्लों में घूमते और केसरिया मोदक की रट लगाते हुए वे वापस जैन मौहल्ले की ओर मुड़े। आधी रात हो चुकी थी। परन्तु सुव्रत मुनि को इस तरह घूमते हुए श्रमणोपासक जिनभद्र ने देखा। मुनि को आदरपूर्वक घर में पदार्पण करने के बाद केसरिया मोदक की चाह के अनुसार पात्र में मोदक भर दिये। वे झोली समेटकर ज्यों ही वापस लौटने लगे जिनभद्र श्रावक ने पूछा-“मुनिवर ! समय क्या हुआ है ?'' आकाश की ओर आँखें उठाकर देखा तो स्तब्ध रह गए। “यह तो तारों भरी रात है, मध्य रात्रि का समय है ! श्रावक जी ! यह क्या हो गया ? मेरे से बहुत बड़ी भूल हो गई ? रात्रि में ग्रहण करना और आहार करना मुनि के लिए सर्वथा अकल्प्य है ! पर मैं कहाँ भटक गया? यों कहते-कहते सुव्रत मुनि का गला रुंध गया। श्रावक जिनभद्र ने उनको इस प्रकार निन्दना-गर्हणा करते देख आत्मीयताभरे स्वर में कहा-“मुनिश्री ! आप घबराइए नहीं, प्रबल मोहोदय के कारण व्यक्ति मूढ़ बन जाता है। ऐसी स्थिति में भूल हो जाना कौन-सी बड़ी बात है ? भगवान महावीर ने प्रमादपूर्वक व्रत में स्खलना के प्रतीकार के रूप में प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होने का उपदेश दिया है। अब आप क्या चाहते हैं ?'' ''मैं अपनी भूल का प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होना चाहता हूँ,यहाँ मेरा उपासना-कक्ष है, उसमें आप रातभर विराजिये, सुबह मैं आपको गुरुजी के पास अच्छी तरह पहुँचा दूँगा।" श्रावक जी ने लड्डु का पात्र खाली करके उन्हें अपने उपासना-कक्ष में ठहरा दिया। मुनि प्रतिक्रमण, आलोचना-निन्दना-गर्हणा करते हुए आत्म-ध्यान में लीन हो गए। अपनी रसलोलुपता को याद करते हुए उनका मन ग्लानि, विरक्ति और अनुताप से भर गया। अपने आप को सम्बोधन करके कहने लगे-“सुव्रत ! तू किधर भटक गया? शुद्ध आत्म-तत्त्व को पाने के लिए तूने घरबार छोड़ा। सुख-सुविधाओं, इच्छाओं और वासनाओं को तिलांजलि दी। आज तक तूने और कितनी चीजों के रस चखे, पर क्या तुझे उनसे तृप्ति हुई ? यह पौद्गलिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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