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________________ * ३३० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ * उसका इह-भव, पर-भव तथा आगामी अनेकों भव प्रशस्त हो जाते हैं तथा ज्ञानादि रत्नत्रय भी शुद्ध निरतिचार हो जाते हैं। इसलिए वह ज्ञान-दर्शन-चारित्र की उपलब्धि के लिए सरलभाव से आलोचनादि करता है और कदाचित् केवलज्ञान प्राप्त करके परम्परा से सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष भी प्राप्त कर लेता है। गर्हणा से प्रशस्त योगों का तथा घातिकर्म क्षय का महालाभ - इसी तथ्य की साक्षी 'उत्तराध्ययनसूत्र' में भगवान महावीर ने दी है(आत्म-निन्दापूर्वक) गर्हणा करने से जीव को क्या लाभ होता है ? यह पूछे जाने पर उन्होंने फरमाया-"गर्हणा से व्यक्ति अपुरस्कारभाव (पापकर्म पुरुषार्थ न करने की वृत्ति अथवा प्रशंसात्मक गौरव = पुरस्कारभाव से रहित होने = अहंकाररहित हो जाने के भाव) को प्राप्त होता है। अपुरस्कारत्व को प्राप्त जीव अप्रशस्त योग (मन-वचन-काया की प्रवृत्ति) से निवृत्त हो जाता हैं और प्रशस्त योगों में प्रवृत्त होता है। प्रशस्त योग-प्राप्त-साधक (आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति इन चार निजी) अनन्त गुणों के घातक (ज्ञानावरणीयादि चार घाति) कर्मों के पर्यायों (विशेष परिणतियों) का क्षय कर डालता है।" सुव्रत मुनि को स्वयंकृत आलोचना-निन्दनागर्हणापूर्वक प्रायश्चित्त से केवलज्ञान - आत्म-साक्षीपूर्वक आलोचना के साथ निन्दना-गर्हणा हो तो भी उस आत्मार्थी व्यक्ति की पापविशद्धि होते देर नहीं लगती। धनाढ्य और धर्मसंस्कार-सम्पन्न परिवार के युवक सुव्रत ने आचार्य शुभंकर के पास मुनि-दीक्षा ग्रहण की। बचपन में उसे केसरिया मोदक खाने का बहुत शौक था। दीक्षा लेने के बाद शास्त्रों का अध्ययन किया और मनोयोगपूर्वक संयम-पालन करने लगा। १. (क) तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कटु णो आलोएज्जा, णो पडिक्कमेज्जा, णो णिंदेज्जा, णो गरिहेज्जा, णो विउद्देज्जा, णो विसोहेज्जा, णो अकरणयाए अब्भुटेज्जा, णो अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जेज्जा, तं जहा-अकरिसं चाहं, करेमि वाहं, करिस्सामि वाहं अकित्ती वा मे सिया, अवण्णे वा मे सिया, अविणए वा मे सिया कित्ती वा मे परिहाइस्सति, जसे वा में पूया-सक्कारे वा मे परिहाइस्सति ॥३४८॥ तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कटु आलोएज्जा जाव पडिवज्जेज्जा। माइम्स णं अम्सि लोए गरहिए भवति, उववाए गरहिए भवति, आयाती गरहिए भवति। अमाइम्स अस्सिं लोए पसत्थेउववाए पसत्थे आयाती पसत्था भवति णाणट्ठयाए, दंसणट्ठयाए, चरित्तट्ठयाए॥३४३॥ -स्थानांगसूत्र, स्था. ३, उ. ३, सू. ३४८, ३४३ (ख) गरहणयाए अपुरक्कारं जणयइ। अपुरक्कारगए णं जीवे अपसत्थेहिं तो जोगेहितो नियत्तइ, पसत्थे य पडिवज्जइ। पसत्थ-जोग-पडिवन्ने य णं अणगारे अणंतघाइ-पज्जवे खवेइ। -उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. ७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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